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________________ अपने प्रभु का साक्षात्कार १४१. मनोबल के विकास का दूसरा सूत्र है--स्व-दर्शन । समता का दर्शन या परमात्मा का दर्शन। आप सोचेंगे कि बात तो बहुत अच्छी है। पर बात वहीं उलझ जाती है कि समता का अनुभव करें कैसे ? कैसे करें ? कहने से तो होगा नहीं। कोई उपाय होना चाहिए। कोई पद्धति होनी चाहिए। हम समता का दर्शन कैसे करें ? हमारी दृष्टि तो हमेशा विषमता पर उलझी रहती है और जब दूसरों को देखेंगे तो उलझेगी ही। ___ फ्रांस की युनिवर्सिटी का एक प्रोफेसर अहंकार में आकर बोला-मैं दुनिया का सर्वश्रेष्ठ आदमी हूं। किसी ने पूछ लिया-यह कैसे ? उसने कहा-फ्रांस दुनिया का सर्वश्रेष्ठ देश है। पेरिस फ्रांस का सर्वश्रेष्ठ नगर और. हमारा विश्वविद्यालय हमारे नगर का सर्वश्रेष्ठ क्षेत्र । दर्शन का विभाग उसमें सर्वश्रेष्ठ । मैं उसका अध्यक्ष । इसलिए मैं सर्वश्रेष्ठ आदमी। कैसा गणित है ! हमारी दृष्टि जब दूसरों की ओर जाती है तो यही निष्कर्ष निकलता है कि हम दूसरों को काटते जाते हैं, तोड़ते जाते हैं और दूसरों के सन्दर्भ में हम अपने को सर्वश्रेष्ठ प्रतिष्ठापित करते जाते हैं। इसके अतिरिक्त कोई निष्कर्ष निकलता ही नहीं है । जब स्व-दर्शन में आदमी आता है तो उसे अनुभव होता है कि न फ्रांस सर्वश्रेष्ठ, न पेरिस सर्वश्रेष्ठ, न विश्वविद्यालय सर्वश्रेष्ठ, न दर्शन का विभाग सर्वश्रेष्ठ और न विभागाध्यक्ष सर्वश्रेष्ठ । सब समान है। सब व्यक्ति समान, सब देश समान, सब राष्ट्र समान और सब आत्माएं समान । जो समता के क्षण में जाता है, उसे यह नहीं लगता कि यह अलग, यह अलग । उसे लगता हैं कि सब मेरे-जैसे हैं। सब समान हैं। यह समान ही समान का गणित ऐसा चलता है कि अनन्त में से अनन्त निकालो तो भी पीछे अनन्त ही रहेगा । अनन्त मैं अनन्त मिलाओ तो भी अनन्त ही रहेगा। समता में मिलाते जाओ, निष्कर्ष समता। समता में से निकालते जाओ, निष्कर्ष समता। __ यह समता की अनुभूति जब जागती है तब एक विचित्र प्रकार का अनुभव होता है । उसे जगाने का जो सूत्र है, वह मनोबल को जगाने का परम सूत्र है । वह खोजा गया और बहुत गहरे में उतरकर खोजा गया। छोटा-सा सूत्र, सिर्फ दो अक्षर का । वह है 'सोऽहं । यह एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है । आचारांग सूत्र में मिलता है, सारी व्याख्याओं के बाद सोऽहं । 'वह मैं हूं।' हठयोग में मिलता है-सोऽहं । वह मैं हूं । जो परमात्मा है, वह मैं हूं। आप सोचेंगे कि बड़ा अहंकार हो गया कि जो परमात्मा है, वह मैं हं। परमात्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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