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एकला चलो रे की दुहाई, न जाने क्यों दी गई ? देने वालों ने कुछ सोचा होगा। किन्तु यह अच्छा नहीं हुआ। मैं समझता हूं कि अपनी कमजोरी को छिपाने का इससे सीधा कोई सौदा हो नहीं सकता। बहत सीधा सौदा है। आपको आश्चर्य होगा कि जिसे हम सतयुग मानते हैं, उसमें भी ये दुहाइयां दी जाती थीं। मैंने दो सौ वर्ष पुराना एक पत्र पढ़ा किसी व्यक्ति को दिया हुआ। उसने अपने पुत्र को लिखा है-देखो, बड़ी सावधानी से काम करना । जमाना हलाहल खराब आ गया है । सावधान रहना । आज किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता । यह तो दो सौ वर्ष पुराने पत्र की बात है । दो हजार वर्ष पुराना पत्र मिले तो उसमें भी यही लिखा होगा कि जमाना बड़ा हलाहल है। और बीस हजार वर्ष पहले का मिलेगा तो उसमें भी यही हलाहल की बात होगी। हर युग में आदमी अपनी सारी कमजोरियों को देश और काल पर डालकर अपने आप को मुक्त कर लेता है, छुट्टी पा लेता है। हम इन बातों में न उलझे। काल को अपना आवरण न बनाएं।
सबसे बड़ा होता है पुरुषार्थ । पुरुषार्थी व्यक्ति देश और काल का अतिक्रमण करके भी कुछ कर लेता है। यह समता देशातीत और कालातीत होती है। परमात्मा देशातीत और कालातीत होता है। यदि समता भी देश और काल से प्रतिबद्ध हो तो मैं मानता हूं कि समता का मूल्य भी घट जाएगा। अगर परमात्मा भी किसी देश और काल के साथ जुड़ा हुआ हो कि अमुक समय में परमात्मा हो सकता है और अमुक समय में हो नहीं सकता। दोढाई हजार वर्ष पहले परमात्मा का दर्शन हो सकता था और आज नहीं हो सकता, दरवाजा बन्द हो गया तो परमात्मा भी निकम्मा है, हमारे कोई काम का नहीं। उसे उसके साथ में जुड़ा रहने दो। हमारे किस काम का? यह समता देशातीत और कालातीत है । इसीलिए समता परम सत्य है । परमात्मा है। जो सत्य देश और काल से प्रतिबद्ध हो जाता है, वह वास्तव में सत्य नहीं होता । वह देश और काल का गुलाम बन जाता है । सचाई स्वतंत्र होती है। वह किसी की गुलाम नहीं होती।
यह समता का दर्शन परमात्मा का दर्शन है, आत्मा का दर्शन है, परमात्मा का अनुभव है। जो व्यक्ति सामायिक करता है, समता की साधना करता है, वह व्यक्ति परमात्मा की आराधना करता है, परमात्मा का अनुभव करता है। आज भी ऐसा कर सकते हैं और हजार वर्ष पहले भी ऐसा कर सकते थे। कोई अन्तर आने वाला नहीं। प्राण की साधना, समता की साधना, परमात्मा की साधना है।
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