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अपने प्रभु का साक्षात्कार
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आज मनोबल के विकास के दूसरे सूत्र की संक्षिप्त-सी चर्चा मुझे करनी है । वह है अपने अस्तित्व का बोध । हमें अपने अस्तित्व के बारे में जानकारी नहीं है । हमें दर्शन की शक्ति प्राप्त है । हम द्रष्टा हैं, ज्ञाता हैं । जानते हैं, देखते हैं । पर हमारे सामने देखने के विषय दो हैं - एक कर्म और दूसरा कर्ता । हमारा सब्जेक्टिव माइण्ड और ऑब्जेक्टिव माइण्ड | हमारे सामने जितना ऑब्जेक्ट है, जितना कर्म है, जितना विषय है और पदार्थ है उस पर हमारा दर्शन अटका हुआ है । पदार्थ - दर्शन में हमारी दृष्टि प्रतिबद्ध हो गई है । हम देखते हैं दूसरे को या पदार्थ को या पर को। किसी व्यक्ति को देखते हैं या पदार्थ को देखते हैं हमारे जीवन के सारे क्षणों का लेखा-जोखा किया जाए तो निष्कर्ष होगा कि हमारे समय का ६५ प्रतिशत भाग पर दर्शन या पदार्थ दर्शन में बीतता है। पांच प्रतिशत स्व-दर्शन या चैतन्य - दर्शन में बीतता होगा । यह पांच प्रतिशत भी बहुत ज्यादा है। बहुत लोगों का तो शायद शत-प्रतिशत समय पदार्थ-दर्शन में ही बीतता है । यह संतुलन बिगड़ गया । यह सच है कि पदार्थ-दर्शन के बिना जीवन की यात्रा नहीं चल सकती । परदर्शन के बिना समाज की व्यवस्था नहीं चल सकती । अनिवार्यता है । हम उसे छोड़ नहीं सकते । किन्तु एक संतुलन तो होना चाहिए । हम केवल दूसरे को ही न देखें, पदार्थ को ही न देखें, संसार को ही न देखें, उसके साथ अपने आपको भी देखें । यह संतुलन बना रहे । प्रतिदिन हमारा यह अभ्यास चले कि दूसरे को देखें तो अपने आपको भी देखें । ऐसा करने से संतुलन नहीं बिगड़ेगा । समस्या नहीं उलझेगी । आज तो संतुलन खो गया है । परिणाम क्या हुआ ? अहंकार बढ़ा, ममकार बढ़ा । समस्याओं को पैदा करने वाली हमारी दो अवस्थाएं हैं— अहंकार का विकास और ममकार का विकास । ये दो समस्याएं सारी समस्याओं को जन्म देती हैं। आदमी दूसरे को देखेगा तो अहंकार बढ़ेगा, पदार्थ को देखेगा तो अहंकार बढ़ेगा । एक संस्कृत कवि ने बहुत सुन्दर लिखा है—
अधोऽधो पश्यतः कस्य, महिमा नो गरीयसी । उपर्युपरि पश्यन्तः सर्व एव दरिद्रति ॥
आदमी में हीन भावना पैदा होती है या अहंकार की भावना पैदा होती है । ये दो मानसिक ग्रन्थियां सारी समस्याओं को जन्म देती हैं। दो कॉम्प्लेक्स हैं। दो ग्रन्थियां हैं, जो सारी उलझनें पैदा करती हैं । कवि ने बहुत अच्छा लिखा है । अपने से नीचे को आदमी देखता है, नीचे से नीचे को, तो अहं
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