________________
एकला चलो रे
नींद में भी यदि राघव के सिवाय, रामचन्द्र के सिवाय किसी के प्रति पति का भाव आया हो तो अग्नि मुझे जला डाले । क्या कोई कह सकता है ? जागने की बात कहना भी कठिन है, क्या कोई नींद की बात कह सकता है ? किन्तु जिसकी चेतना बदल गयी, फिर नींद में भी वह घटना घटित नहीं हो सकती। नींद में भी वे घटनाएं तब घटित होती हैं जब हमारी चेतनाएं रूपान्तरित नहीं होती हैं । जब चेतना ही बदल गयी तो फिर नींद क्या और जागना क्या? यह भेद-रेखा ही समाप्त हो जाती है। इसीलिए भगवान् महावीर की वाणी हमें मिलती है--'सुत्ता अमुणिणो, मुणिणो सा जागरंति'-अमुनि हैं वे जो सदा सोये हुए हैं। अज्ञानी आदमी जिसे ज्ञान उपलब्ध नहीं है, जिसकी चेतना में ज्ञान घटित नहीं है वह सोया है चाहे दिन के बारह बजे हों, या चार बजे हों। सदा सोया हुआ है। और जिसकी चेतना में रूपान्तरण हो गया, ज्ञानी बन गया, मुनि बन गया, चाहे रात के बारह बजे हों या दो-सदा जागता रहता है । जागना और सोना--ये दोनों चेतना के साथ जुड़े हुए हैं। ध्यान का सबसे बड़ा उद्देश्य है चेतना का रूपान्तरण । चेतना का इस प्रकार रूपान्तरण कर लेना कि हर क्षण में चेतना वैसी चले, हर क्षण में चेतना एक समान रहे, हर वातावरण में चेतना एक जैसी रहे । बहुत कठिन समस्या मैंने आपके सामने प्रस्तुत की है। इस समस्या पर हमें विचार करना है। और उसका निर्माण कैसे संभव हो सकता है, उस सम्भावना पर भी विचार करना है । आपने पहले ही सुना कि हम लोग केवल इस पर विश्वास नहीं करते कि ऐसा करना है । हम तो इस पर विश्वास कर सकते हैं कि इसकी प्रक्रिया क्या है, इसका उपाय क्या है ? यह कैसे संभव हो सकता है ? यह विश्वास है कि जितने अपाय हैं उतने ही उपाय हैं । एक भी अपाय ऐसा नहीं जिसका उपाय न हो । प्रत्येक बात का उपाय है। उपाय को हमें खोजना है। हमें यथार्थ पर विचार करना है और यथार्थ के साथ ध्यान को समझना है। यदि ध्यान को एक सत्य के रूप में, एक बदलती हई चेतना की अवस्था के सूत्र रूप में स्वीकार करेंगे तो ध्यान से बहुत कुछ उपलब्ध होगा और मात्र ध्यान को एक हल्का-सा मनोविनोद, आराम और विश्राम के रूप में स्वीकार किया तो जो मिलना चाहिए वह पूरा नहीं मिलेगा । जब तक हमारी चेतना की एक विशिष्ट अवस्था निर्मित नहीं होती तब तक पूर्णता नहीं आती। हर बात के साथ एक-न-एक कमी रह जाती है। किन्तु जब चेतना का एक स्तर ऐसा निर्मित होता है, ये सारी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org