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________________ १२६ अज्ञात द्वीप की खोज विश्वास में न जाएं, इस भ्रांति में न जाएं कि जैसी परिस्थिति होती है, आदमी वैसा बनता है । मानता हूं, जब तक चेतना नहीं बदलती, ध्यान के द्वारा व्यक्ति अपना रूपान्तरण नहीं करता, तब तक तो यह सचाई है कि जैसी परिस्थिति, वैसी चेतना और वैसा आदमी। किन्तु जब ध्यान के द्वारा हम एक प्रकार की अपनी चेतना का निर्माण कर लेते हैं, अपने मनोबल को बढ़ा लेते हैं तो परिस्थिति आती है और हम उससे कभी प्रभावित नहीं होते । हम वही करते हैं जो अपनी चेतना के स्तर पर घटित होता है। हजारों घटनाएं हमारे सामने हैं । यह परिस्थितिवाद आत्मवाद के सामने, चैतन्यवाद के सामने कार्य कर नहीं होता । ___ सन्तुलन, तटस्थता-ये सारी घटनाएं परिवर्तित चेतना में ही घटित होती हैं। मैं ध्यान को जिस रूप में देखता हूं-वह रूप है केवल एक वर्तमान का क्षण । मेरी दष्टि में अहिंमा, ध्यान, साधुत्व ये कोई दो नहीं हैं, बिलकुल नहीं हैं । जो अहिंसा की परिभाषा है वही ध्यान की परिभाषा है । जो ध्यान की परिभाषा है वही अहिंसा की परिभाषा है। जैन आचार्यों ने अहिंसा की. परिभाषा की कि राग-द्वेषमुक्त चेतना या राग-द्वेषमुक्त क्षण का नाम हैअहिंसा । जिस क्षण में, जिस चेतना में न राग, न द्वेष, उस क्षण का, उस चेतना का नाम है-अहिंसा । ध्यान की परिभाषा और क्या है ? जिस चेतना में न राग, न द्वेष केवल समता, उस चेतना का नाम है-ध्यान । जब हमें प्रियता की अनुभूति नहीं, अप्रियता की अनुभूति नहीं, राग का संवेदन नहीं, द्वेष का संवेदन नही, वह हर क्षण हमारा ध्यान है। फिर चाहे हम भोजन करते हैं, चलते हैं, खाते हैं, पीते हैं, सोते हैं, वह भी ध्यान है। सोने में भी ध्यान घटित होता है । आप यह न मानें कि जागने में ही ध्यान होता है। सोने में भी ध्यान होता है और सोने में भयंकर विलाप भी होता है। एक आदमी नींद लेता है, नींद में भयंकर अत्याचारी होता है। एक आदमी नींद लेता है, नींद में महाध्यानी भी होता है। नींद भी हमारी चेतना की एक अवस्था है । जागना भी हमारी चेतना की एक अवस्था है। दोनों हमारी चेतना की अवस्थाएं हैं और ध्यान भी हमारी चेतना की एक अवस्था है। जब ध्यान की स्थिति चेतना में अवस्थित हो जाती है तो फिर सोते-जागते कोई फर्क नहीं पड़ता। सीता ने एक संकल्प दोहराया अपना, जब अग्नि की प्रज्वलित ज्वालाएं सामने धधक रही हैं, उसके तट पर जाकर महासती ने कहा कि मन में, वचा में और शरीर में-जागृत अवस्था में भी, स्वप्न में भी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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