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________________ रचनात्मक दृष्टिकोण पुरुषार्थ चतुष्टयी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-यह पुरुषार्थ चतुष्टयी गृहस्थ समाज का महत्त्वपूर्ण अंग है। सभी संन्यासी नहीं हो सकते। घर को छोड़ सब गुफावासी नहीं बन सकते। उनमें कामना होती है। काम भी एक पुरुषार्थ है। जब काम है, कामना है, तो उसकी पूर्ति भी होनी चाहिए। उसकी पूर्ति का साधन है अर्थ, धन । काम साध्य है और उसका साधन है अर्थ । यदि काम और अर्थ दो ही रहें तो समाज स्वस्थ नहीं रह सकता। वह उन्नत और विकासशील नहीं हो सकता। इसके लिए मोक्ष और धर्म की खोज हुई । मोक्ष साध्य है। यह हमारा अन्तिम साध्य है। सब दुःखों से छुटकारा पा लेना ही अन्तिम लक्ष्य है। उसका साधन है धर्म । मोक्ष साध्य है और धर्म साधन है । इस प्रकार पुरुषार्थ चतुष्टयी में दो साध्य हैं और दो साधन हैंकाम साध्य है, अर्थ साधन है । मोक्ष सोध्य है, धर्म साधन है । भारतीय दर्शन की यह विशेषता है। उसने केवल भौतिकता को ही सब कुछ नहीं माना। उसने सर्वोपरि सूत्र दिया आध्यात्मिकता को। दोनों का समन्वय उसने सिखाया। कोरी भौतिकता भी कार्यकर नहीं होती और कोरी आध्यात्मिकता भी कार्यकर नहीं होती। भौतिकता से दुःखों का अन्त नहीं किया जा सकता तो आध्यात्मिकता से रोटी नहीं मिल सकती। धर्म से रोटी और कपड़ा नहीं मिल सकता। धर्म से मकान और सुख-सुविधा नहीं मिल सकती । यदि कोई कहे कि धर्म करो, सब कुछ हो जाएगा-यह झूठ है, मिथ्या धारणा है। धर्म से सब कुछ नहीं होता । जो काम धर्म से होने का है वही काम धर्म से होगा। जो काम धर्म से नहीं होने का है वह काम धर्म से कैसे होगा ? धर्म से पेट नहीं भर सकता । पेट भरेगा खेती करने से। यदि किसान खेती न कर जप और ध्यान में लग जाए और यह मान बैठे कि जप और ध्यान से अन्न उत्पन्न हो जाएगा तो यह उसकी भूल होगी। जप और ध्यान का अपना मूल्य है, अपनी उपयोगिता है। सबकी अपनी-अपनी सीमा है । सबकी सापेक्षता है। निरपेक्ष कोई नहीं है, कुछ भी नहीं है । हम किसी तथ्य को निरपेक्ष मूल्य नहीं दें। हम यह भी कल्पना न करें कि सब आदमी काम-मुक्त हो जायेंगे, निष्काम हो जायेंगे, यह कभी संभव नहीं है । सामाजिक प्राणी में कामना रहेगी तो उसकी पूर्ति के लिए धन भी कमाना होगा, अर्थार्जन भी करना होगा। यदि इन दो का ही अस्तित्व हो तो दोनों निरंकुश बन जायेंगे। कामना भी निरंकुश हो जाएगी और अर्थ का अर्जन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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