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एकला चलो रे
४.करणा
रचनात्मक दृष्टिकोण से करुणा की वृत्ति का विकास होता है, क्रूरता समाप्त होती है । ध्वंसात्मक दृष्टिकोण में क्रूरता पनपती है और समाज को उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं। ५. सत्यनिष्ठा ___रचनात्मक दृष्टिकोण के अभाव में व्यक्ति की निष्ठा सत्य के प्रति नहीं होती । उसकी निष्ठा वस्तु या पदार्थ के प्रति होती है । सत्यनिष्ठ होने और वस्तुनिष्ठ होने में बहुत बड़ा अन्तर है । वस्तु की उपयोगिता को स्वीकार करना, वस्तु का उपयोग करना एक बात है और वस्तुनिष्ठ होना दूसरी बात है । निष्ठा परम के प्रति होनी चाहिए। जो परम नहीं है, चरम नहीं है, उसके प्रति निष्ठा होती है तो बहुत बड़ा खतरा पैदा हो जाता है। भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण सूत्र है-'परं पश्यत माऽपरं ।' पर (परम) को देखो, अपर (अपरम) को मत देखो। अपरा-परा विद्या
भारत में विद्याओं की दो धाराएं रही हैं—एक है पराविद्या की धारा और दूसरी है अपराविद्या की धारा। अपराविद्या भौतिक विज्ञान की ओर ले जाती है, वह पदार्थ-विज्ञान सिखाती है। उसके द्वारा आदमी अपनी आजीविका का संचालन करता है, उसे पूरी करता है। यह भी महत्त्वपूर्ण है। इसके बिना काम नहीं चल सकता। इसको छोड़ा नहीं जा सकता। किन्तु इसी में हमें नहीं अटक जाना चाहिए, नहीं रुक जाना चाहिए। यह अन्तिम बिन्दु नहीं है । यह मध्य विराम है । यहां अटकना नहीं है । यहां जो अटकता है, वह भटक जाता है। अपरा विद्या में अटक जाने के कारण ही भ्रष्टाचार और अनैतिकता पनपती है। क्योंकि जो व्यक्ति अपरा विद्या को ही अन्तिम बिन्दु मान लेता है, उसकी विद्या धन में केन्द्रित हो जाती है। वह पदार्थनिष्ठ बन जाता है। उससे आगे उसकी दृष्टि नहीं जाती। वह येन-केन-प्रकारेण अर्थ-संग्रह की ओर उन्मुख होता है। उसके लिए साधनशुद्धि की बात समाप्त हो जाती है। यहां एक विचार विकसित हुआ था कि साध्य कितना ही ऊंचा हो, यदि उसकी प्राप्ति के साधन शुद्ध नहीं हैं तो साध्य का मूल कम हो जाएगा। साध्य शुद्ध है तो साधन भी शुद्ध होना चाहिए। धन कमाना एक साध्य है । यह जीवन-यापन के लिए जरूरी है ।
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