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रचनात्मक दृष्टिकोण
१०६.
सोचा, तीसरे और चौथे ने भी यही सोचा । तालाब भर गया । हजारों लोटे उसमें उडेले गए।
प्रातःकाल हुआ। राजा के मन में एक कल्पना थी कि सर्वत्र पानी का तालाव होता है, पर मेरे राज्य में, नगर में, दूध का तालाब होगा । यह इतिहास की एक विचित्र घटना होगी।
राजा उल्लास भरे हृदय से स्थान पर गया । मंत्रीगण भी साथ थे । दूध से भरे तालाब को देखने के लिए सब लालायित थे । राजा ने देखा, तालाब लबालब भरा है—दूध से नहीं, पानी से । राजा ने मंत्री से पूछा-यह क्या ? क्या आदेश नहीं सुनाया गया ? मंत्री बोला-आदेश सबने सुना है, आदेश का पालन सबने किया है । दूध के बदले पानी से तालाब भर गया है । ऐसा इसलिए हुआ है कि हम अपने नागरिकों में कर्त्तव्य-बोध की चेतना नहीं जगा पाए
और जहां कर्त्तव्य-बोध की चेतना नहीं जागती वहां ऐसा ही होता है, दूध के बदले पानी से तालाब भर जाता है। कर्तव्य और दायित्व का बोध
सामाजिक स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी होता है कर्त्तव्य-बोध और दायित्व-बोध, कर्त्तव्य की चेतना का जागरण और दायित्व की चेतना का जागरण । आखिर दण्ड और यंत्रणा से कब तक कार्य चलेगा ? क्या पूरे जीवन-काल तक आदमी नियंत्रण से रहेगा ? क्या यह भय निरन्तर सिर पर सवार ही रहेगा ? भयभीत समाज सदा रोगग्रस्त रहता है, वह कभी स्वस्थ हो नहीं सकता। भय सबसे बड़ी बीमारी है । भय तब होता है जब दायित्व और कर्तव्य की चेतना नहीं जागती। जिस समाज में कर्त्तव्य और दायित्व की चेतना जाग जाती है, उसे डरने की जरूरत नहीं होती। अर्जन के साथ विसर्जन
रचनात्मक दृष्टिकोण का तीसरा सूत्र है-अर्जन के साथ-साथ विसर्जन भी हो। आज की बीमारी का बहुत बड़ा लक्षण है-अर्जन और संग्रह । आदमी अर्जन और संग्रह में ज्यादा रस लेता है । आदमी चाहता है कि संग्रह का अधिक से अधिक उपयोग अपने ही लिए हो । संग्रह का भोग सबके लिए न हो। यह बीमारी का मूल है। जब तक अर्जन के साथ विसर्जन की बात नहीं जुड़ जाती तब तक समाज स्वस्थ नहीं बन सकता।
आदमी प्रकृति की ओर ध्यान दे। आदमी खाता है साथ-साथ विसर्जन भी करता है। यदि आदमी खाता ही चला जाए, शौच न करे तो दो दिन में
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