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रचनात्मक दृष्टिकोण
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पास ही काम कर रहा था । वह बोला -- यह मत कहो कि कुल्हाड़ी मुझे मिली है । मैं भी तो तुम्हारा साथी हूं। तुम्हारे साथ काम कर रहा हूं । यह कहो — कुल्हाड़ी हमें मिली है । वे इस प्रकार आपस में बातें कर रहे थे। इतने में ही थोड़ी दूरी पर कुल्हाड़ी का मालिक, जो वहीं काम कर रहा था, वह बोला — यह कुल्हाड़ी मेरी है । अब जिसने पहले कुल्हाड़ी को देखा था, उसने अपने साथी से कहा - 'अरे, कुल्हाड़ी का मालिक आ गया । हम तो अब पकड़े गये।'
यह सुनकर साथी बोला- 'कुल्हाड़ी तुम्हें मिली है, इसलिए यह मत कहो - हम पकड़े गये । यह कहो — मैं पकड़ा गया ।'
दृष्टि का कितना बड़ा अन्तर ? जहां वस्तु को लेने की बात आती है, वहां कहा जाता है— कुल्हाड़ी हमें मिली है और जहां पकड़े जाने की नौबत आती है, वहां कहना पड़ता है—मैं पकड़ा गया ।
स्वार्थप्रधान दृष्टिकोण से समाज बहुत बीमार होता है । यह सामाजिक बीमारी का सबसे बड़ा कारण है । प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए सोचता है । वह यह नहीं सोचता कि उस चिन्तन से समाज का क्या होगा ? जब समाज बीमार होगा तब क्या व्यक्ति उस बीमारी से प्रभावित हुए बिना रह सकेगा ? यह कभी संभव नहीं है । व्यक्ति और समाज अलग-अलग नहीं हैं । समाज का घटक है व्यक्ति । व्यक्ति इकाई है और समाज उन इकाइयों का समूह | व्यक्ति बीमार होगा तो समाज बीमार होगा । समाज बीमार होगा तो व्यक्ति बीमार होगा । ऐसी कोई भी खिड़की नहीं है कि उसे बन्द कर देने पर बाहर की दुर्गन्ध न आए। हवा नहीं आएगी तो दम घुटने लगेगा । एक की बीमारी का परिणाम सारे समाज को भुगतना पड़ता है । आदमी इस तथ्य को नकारता जा रहा है, इसीलिए समाज बीमार से बीमार होता चला जा रहा है ।
स्वार्थ-संयम
रचनात्मक दृष्टिकोण का पहला सूत्र है -- स्वार्थ संयम की क्षमता । व्यक्ति में स्वार्थ नहीं होता, यह नहीं मानना चाहिए । व्यक्तिगत स्वार्थ को M कभी छुड़ाया नहीं जा सकता । यह मनुष्य की प्रकृति है । किन्तु स्वार्थ-संयम की क्षमता का विकास किया जा सकता है। एक सीमा तक स्वार्थ मान्य हो हो सकता है, किन्तु स्वार्थ इतना असीम न बन जाए कि व्यक्ति सब कुछ
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