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________________ व्यनि-मुक्ति एक होता है आरोपण और एक होता है रूपान्तरण । पिता पुत्र पर यह बात थोप देता है कि तुम्हें शराब नहीं पीनी है, तम्बाकू नहीं पीनी है । यह है आरोपण । आरोपण रूपान्तरण नहीं होता। पुत्र पिता के समक्ष वह काम नहीं करेगा। वह सिगरेट नहीं पीएगा, मदिरा नहीं पीएगा। वह नहीं पीने का प्रदर्शन करेगा, पर वह बात छूटेगी नहीं। वह छिप-छिपकर उनका सेवन करेगा। जैसे ही एकान्त मिला, कोई देखने वाला नहीं होगा, तब वह वैसा आचरण करेगा, जिसका निषेध कर दिया गया है, आरोपण कर दिया गया है। निषेध की बात का आरोपण होता है। वह थोपी हुई बात होती है। कानून की मर्यादा आरोपण है, वह रूपान्तरण नहीं है। चेतना की मर्यादा रूपान्तरण है, वह आरोपण नहीं है । यही तो अन्तर है कानून की मर्यादा और चेतना की मर्यादा में। कानून की मर्यादा समूह की मर्यादा है। आदमी किसी के सामने वैसा आचरण नहीं करेगा जो कानून मे निषिद्ध है। वह बुराई समाज के सामने नहीं करेगा, किन्तु वह एकान्त में उसे कर लेगा । क्योंकि यह आरोपित मर्यादा है, आरोपित वर्जना है, चेतना की मर्यादा नहीं है, चेतना की वर्जना नहीं है। चेतना की मर्यादा में एकान्त या समूह, देखते हुए या छिपकर करने की बात ही समाप्त हो जाती है। फिर प्रकाश में न करने और अंधकार में करने, अकेले में करने और समूह में न करने की बात समाप्त हो जाती है। वह जिसे नहीं करना है, कभी नहीं करेगा और इसलिए नहीं करेगा कि उसकी न करने की मर्यादा आरोपित नहीं है, चेतना के द्वारा स्वी-. कृत है। यह तर्क से समर्थित नहीं, किन्तु चैतन्य जागरण से समर्थित है। चेतना का रूपान्तरण ध्यान द्वारा घटित होता है। यह दो-चार-दस दिनों में घटित होने वाला रूपान्तरण नहीं है। इसके लिए तीन बातें आवश्यक होती हैं-श्रद्धा, दीर्घकाल और सातत्य । ___ सबसे पहली बात है श्रद्धा। जो प्रक्रिया हम करना चाहते हैं, उसके प्रति श्रद्धा का भाव पैदा हो, आकर्षण हो और हमें यह महसूस हो कि यह प्रक्रिया रूपान्तरण के लिए आवश्यक है। जब तक आवश्यकता का अनुभव नहीं होगा, तब तक सफलता नहीं मिलेगी। जैसे जीवन-यात्रा के लिए रोटी खाना आवश्यक है, पानी पीना आवश्यक है, वैसे ही मानसिक यात्रा को चलाने के लिए चैतसिक यात्रा को चलाने के लिए संकल्पशक्ति और निर्विकल्पता का विकास जरूरी है। यह श्रद्धा पैदा हो। दूसरी बात है—दीर्घकालिता । अभ्यास लम्बे समय तक चले । कोई भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003058
Book TitleEkla Chalo Re
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size14 MB
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