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एकला चलो रे
जहां चेतना लुप्त होती है, वहां सब कुछ लुप्त हो जाता है । शेष कुछ भी नहीं बचता । मदिरापान के समर्थन में अनेक तर्क दिए जा सकते हैं। उसके खंडन में भी अनेक तर्क दिए जा सकते हैं। तर्कों के आधार पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता । अनुभव कहता है कि चेतना निरन्तर जागृत रहनी चाहिए। उसका कभी भी मूच्छित होना वांछनीय नहीं है। मादक वस्तुएं चेतना को मूच्छित करती है। इसके आधार पर व्यसन-मुक्ति की प्रयोजनीयता को समझा जा सकता।
केवल जानना ही पर्याप्त नहीं होता । बुराई को बुराई जानने वाला भी उससे छुटकारा नहीं पा सकता। उसचो छोड़ने के लिए प्रयत्न आवश्यक होता
घर में चोर घुस गए। पत्नी ने जान लिया, देख लिया । वह पति से बोली-चोर घर में घुस आए हैं । सेठ ने कहा-जानता हूं। पत्नी चुप हो गई। चोर कमरे में घुसे। पत्नी ने पति से कहा-चोर कमरे में घुसकर तिजोरी खोल रहे हैं। पति बोला-जान रहा हूं। पत्नी चुप हो गई । चोर कीमती सामान लेकर चलने लगे। पत्नी ने पति को जानकारी दी। पति बोला-जानता हूं, चुप रह । बार-बार क्यों कह रही है ? वह कहता रहा और चोर सारा सामान लेकर चले गए।
किसी को कहा जाए कि यह बुराई है, ऐसा मत करो । वह तत्काल कहता है-'तुम क्या बताते हो ? मैं स्वयं जानता हूं।' जानते-जानते सारा जीवन बीत जाता है । सार कुछ नहीं होता। मानने और जानने का चक्र चलता रहता है । आदमी बुराइयों को संरक्षण देता चला जाता है। वह कभी उनसे बच नहीं सकता। बुराइयों से बचने का एकमात्र उपाय है अपना अनुभव और अपना अभ्यास । ध्यान की प्रक्रिया केवल बुराई का ज्ञान कराने की प्रक्रिया नहीं है । यह आंतरिक प्रक्रिया है । यह चेतना के सहज परिवर्तन की प्रक्रिया है । ध्यान का सबसे बड़ा लाभ है-चेतना का जागरण । जैसे-जैसे चेतना का का जागरण होगा, वैसे-वैसे मूर्छा लाने वाली सारी बातों के प्रति अपने आप अरुचि होने लग जाएगी। शराब पीने वाले को शराब से और तम्बाकू पीने वाले को तम्बाकू से दुर्गन्ध आने लग जाएगी। यह गन्ध कहां से आती है ? जैसे ही भीतर की चेतना जागती है तब मूच्छित चेतना जिस बात को स्वीकारती है, जागृत चेतना उस बात को नहीं स्वीकारती । यही तो यथार्थ परिवर्तन है।
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