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व्यसन मुक्ति
बहुत आवश्यक होता है । एक दृष्टि से वह विधेयक का पूरक होता है, बाधक नहीं ।
नशा करने की आदत बहुत जटिल होती है । आदमी कह देता है, कभीकभी तम्बाकू पी ली तो क्या हुआ ? दो-चार घूंट शराब के ले लिये तो क्या हुआ ? ठंडे देशों में शराब पीनी ही पड़ती है । वहां उसकी मात्रा अधिक होती है, किन्तु गर्म देशों में यदि थोड़ी मात्रा में शराब का सेवन किया जाए तो क्या हानि हो सकती है । थोड़ी मात्रा में ली गई शराब स्वास्थ्यप्रद और बीमारी को मिटाने वाली होती है । ये तर्क हैं । प्रत्येक निषेध और विधेय के लिए तर्क दिए जा सकते हैं । किन्तु तर्क का रास्ता सही नहीं है । एक तर्क होता है । दूसरा उसका प्रतितर्क हो सकता है। तर्क हो और प्रतितर्क न हो, यह कभी सम्भव नहीं होता । प्रत्येक व्यक्ति के पास अपना तर्क होता है । तर्क के आधार पर मैं यदि किसी बात का प्रतिपादन करता हूं तो मुझे यह भी मान लेना चाहिए कि मेरे तर्क का खंडन भी हो सकता है । दुनिया में एक भी तर्क ऐसा नहीं है जिसका खंडन न हो । आज तक जितने तर्कशास्त्री हुए हैं उन्होंने अपने तर्क प्रस्तुत किए । शताब्दियों के बाद कोई ऐसा व्यक्ति जन्मा जिसने उन पुराने सभी तर्कों का खंडन कर दिया । तर्कशास्त्र का इतिहास इसका साक्षी है । कोई महान् तार्किक होता है और वह अपने तर्क - बल से सारे सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है । दो-चार शताब्दियों के बाद कोई दूसरा तार्किक होता है और वह उन तर्कों का खण्डन कर अपने तर्क प्रस्तुत करता है । फिर उन तर्कों का खंडन करने वाला भी मिल जाता है । यह तर्क जगत् का निश्चित क्रम है । कोई इसका अपवाद नहीं होता ।
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मैं केवल तर्क के आधार पर यह नहीं कह रहा हूं कि व्यसन हमारे लिए बुरे हैं, किन्तु दूसरे कुछेक पहलू हैं जिनसे उनकी व्यर्थता सिद्ध होती है । पहली बात है, मादक वस्तुओं के सेवन से शारीरिक हानि होती है, स्वास्थ्य बिगड़ता है | यह तथ्य डॉक्टरों द्वारा स्थापित हो चुका है । वे अनेक माध्यमों से इसका प्रचार करते हैं । सिगरेट के प्रत्येक पैकेट पर लिखा होता है- 'तम्बाकू पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ।' शराब भी हानिकारक है | पर आदमी इतना जान लेने पर भी उसे छोड़ना नहीं चाहता या कहा जा सकता है कि उससे वे चीजें छूटती नहीं ।
प्रश्न होता है कि आदमी बुराई क्यों करता है ? बुरा क्यों बनता है ? एक संस्कृत कवि ने आदमी के बुरे बनने के चार कारण निर्दिष्ट किए हैं
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