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व्यसन-मुक्ति
ध्यान की साधना प्रकाश की साधना है, ज्योति की साधना है। यह जागरण की साधना है । चेतना की दो अवस्थाएं होती हैं—एक है मूर्छा की अवस्था और दूसरी है जागरण की अवस्था। मूर्छा की अवस्था त्याज्या है
और जागरण की अवस्था उपादेय है । जो जागता है, उसका विकास होता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है । जो मूञ्छित होता है, उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है, बुद्धि और समृद्धि कम होने लग जाती है । इसलिए मनुष्य ने सदा अपने बिकास के लिए जागरण का प्रयत्न किया है। उसने चेतना में कुंठा और मूर्छा उत्पन्न करने वाली सारी स्थितियों की वर्जना की है।
व्यसन चेतना को मूच्छित करने वाली एक अवस्था है। व्यसन का अर्थ है-कष्ट । यह कष्ट का पर्यायवाची शब्द है। जो चित्त की वृत्ति या चैतसिक अवस्था मनुष्य को कष्ट में डाल देती है, उस वृत्ति का नाम भी व्यसन हो जाता है। व्यसन-मुक्ति का आन्दोलन बहुत पुराना है। व्यसन सात हैं । सामाजिक जीवन में उनका परिहार बहुत आवश्यक है।
मादक वस्तु का सेवन एक व्यसन है। जो पदार्थ मादकता पैदा करता है, चेतना को मूच्छित करता है, उसका सेवन व्यसन है।
भारत के सभी धर्मों में वर्जनाओं का महत्त्व रहा है। 'यह मत करो', 'वह मत करो'-इन वाक्यों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ है। मन को भाने वाला सिद्धान्त तो है-सब कुछ करो । जो मन में आए सो करो । सुनने में यह सिद्धान्त अच्छा लगता है, किन्तु यह अनेक जटिलताएं पैदा कर देता है। उन जटिलताओं में समाज जीवित नहीं रह सकता। फिर चोर कहेगा, मन में आया इसलिए चोरी कर ली। समाज की व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। यदि वर्जनाएं न हों तो समाज चल ही नहीं सकता। उसमें व्यवस्थाएं नहीं रह सकतीं । 'यह करो', 'यह मत करो'---ये दोनों साथ-साथ चलते हैं, तब समाज संतुलित रह सकता है । केवल निषेध या केवल विधेय से संतुलन बिगड़ जाता है । आजकल कुछ लोग कहते हैं कि समाज में निषेध नहीं होना चाहिए । सब कुछ विधायक होना चाहिए । यह एकांगी दृष्टिकोण है । निषेध
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