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सह-अस्तित्व और समन्वय
लियों ने ही सब कुछ किया है। व्यक्ति अपने आपको गरीब मानता है, दरिद्र मानता है पर जिसके पास दस अंगुलियां हैं वह गरीब नहीं हो सकता, दरिद्र नहीं हो सकता। दरिद्र वह होता है जिसे अपनी दस अंगुलियों पर भरोसा नहीं होता।
ये दस हैं, इसलिए दिन-प्रतिदिन हम विकास करते जा रहे हैं। आज दस न हों या सबको एक कर दें तो विकास समाप्त हो जाएगा, सारी सुन्दरता मिट जाएगी। ___ हम यह कभी न सोचें कि सब एक हो जाएं, सारी जातियां एक हो जाएं, सारे धर्म और राष्ट्र एक हो जाएं । यह असम्भव और दुरूह कल्पना होगी और साथ ही साथ यह अनुपयोगी कल्पना भी होगी।
हमारी सुन्दरता भिन्नता में है, नानात्व में है। इसके साथ समन्वय की चेतना विकसित होती है नानात्व बहत उपयोगी होता है।
प्रश्न होता है कि समन्वय की चेतना का विकास कैसे होता है ?
जो व्यक्ति अपने स्वार्थ, मान्यता और असहिष्णुता-इन तीनों वृत्तियों पर शासन करता है, उसमें समन्वय का विकास होता है। जिस व्यक्ति में स्वार्थ की प्रबलता है, जिसमें मान्यता का आग्रह है और जो असहिष्णु है, वह समन्वय की चेतना को जागृत नहीं कर सकता । स्वार्थ का भी समीकरण करना होता है।
पुराने समय में साम्प्रदायिक संघर्ष और जातीयता का संघर्ष---ये दो संघर्ष थे । आज तीसरा संघर्ष और सामने आया है। वह है-वर्ग-संघर्ष । इसका जन्म आज की राजनीति से हुआ है। यह वर्ग-संघर्ष भी तब तक नहीं मिट सकता, जब तक स्वार्थों का समीकरण नहीं होता। आज एक वर्ग के स्वार्थ दूसरे वर्ग के स्वार्थों से टकराते हैं। मिल-मालिकों का स्वार्थ मजदूरों से टकराता है । सम्पन्न व्यक्ति के स्वार्थ गरीब आदमी से टकराते हैं। यह टकराव इसीलिए है कि स्वार्थों का समीकरण नहीं होता। ___ एक घटना है । कुम्हार के दो लड़कियां थीं । एक किसान के यहां ब्याही थी और दूसरी का विवाह एक कुम्हार के यहां हुआ था। एक दिन पिता पुत्रियों से मिलने गया । किसान के यहां विवाहित बेटी ने कहा-पिताजी ! बड़ी मुसीबत है । खेत बो दिए गए हैं । बरसात नहीं आ रही है। आकाश में बादल हैं ही नहीं । सारा श्रम नष्ट हो जाएगा । आप प्रार्थना करें कि बरसात आ जाए । पिता दूसरी बेटी के यहां गया। उसने कहा-पिताजी !
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