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एकला चलो रे
छुए आगे बढ़ गया । वे बहुत प्रसन्न हुए। इधर हिन्दू भाई भी खुशियों से उछल पड़े । शाखा को काटने की नौबत नहीं आयी । ताजिया आगे बढ़ा । दोनों पक्षों को समाधान मिल गया । रास्ता ऊंचा था, तब तक वटवृक्ष बाधक था । रास्ता नीचा कर दिया, बाधा मिट गई। सारा तनाव मिट गया, टकराहट मिट गई ।
जब आदमी समन्वय की चेतना से समाधान खोजता है तो कठिन कार्य -भी सरल बन जाता है । प्रत्येक समस्या का समाधान हो सकता है । समस्या है तो समाधान भी है । ऐसी एक भी समस्या नहीं है, जिसका समाधान न हो । जहां समन्वय की चेतना का विकास होता है, जहां सापेक्षता की चेतना जागृत होती है, वहां कुछ भी असंभव नहीं होता। एक अंगुली को दूसरी अंगुली की अपेक्षा रहती है । विरोध कहां नहीं है । हम हाथ को देखें । चार अंगुलियां और अंगूठा विरोधी हैं। दोनों भिन्न दिशाओं में हैं। पूरी मानवजाति का विकास इस विरोध के आधार पर हुआ है । यदि अंगूठा उंगलियों की समरेखा में होता तो मनुष्य जाति का विकास कभी नहीं होता । संस्कृति और सभ्यता का विकास कभी नहीं होता । सभ्यता और संस्कृति का विकास इसी विरोध के कारण हुआ है । अंगूठा अंगुलियों की विरोधी दिशा में है, इसलिए लिपि का, चित्रकारिता का और शिल्प का विकास हुआ है । दोनों की भिन्न दिशागामिता ने विकास में योग दिया है । इनमें भिन्नता है, पर हम समन्वय करना जानते हैं, इसीलिए कोई टकराव नहीं होती । अंगूठा भी नहीं लड़ता और और अंगुलियां भी नहीं लड़तीं । आवश्यकतावश दोनों सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं । लिखना है तो अंगुली मिल जाती है अंगूठे से । कोई कार्य करना है तो दोनों परस्पर मिल जाते हैं ।
विरोध प्रकृति में है । विरोध का अर्थ है - भिन्न दिशा में होना । प्रतिपक्ष होना, यह हमारे वस्तु जगत् की प्रकृति है । यह शारीरिक संरचना और सृष्टिसंरचना की प्रकृति है । इस प्रकृति को कभी नहीं बदला जा सकता । . बदलने में कोई लाभ भी नहीं होगा । क्या अंगुलियों और अंगूठे को एक कर देने से काम हो पाएगा ? विरोध को मिटा दें तो सारी उपयोगिता ही समाप्त हो जाएगी। पांच हैं, इसलिए उनकी उपयोगिता है। एक-एक अंगुली की अपनी उपयोगिता है। पांचों को एक कर द, पिंड बन जाएगा । उससे कोई काम नहीं हो सकेगा । मनुष्य और पशु में यही तो बड़ा अन्तर है । मनुष्य के पास दस अंगुलियां हैं, पशु के पास वे नहीं हैं । इन दस अंगु
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