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सह-अस्तित्व और समन्वय यता की भावना पनपी है तो बड़े-बड़े अन्याय हुए हैं, नर-संहार हुए हैं । आज सम्राट अशोक और अकबर को महत्त्व दिया जाता है। उसके पीछे यही रहस्य है कि दोनों ने समन्वय की छाया में राज्य किया था, समन्वय की साधना की थी। सम्राट अशोक और अकबर ने अपने-अपने राज्य में ऐसी स्थिति पैदा की थी जो इतिहास में महत्त्व के साथ उल्लिखित है । सम्राट अशोक के शिलालेखों में यह उत्कीर्ण है सभी संप्रदाय प्रेम के साथ रहें, कोई किसी के साथ विरोध न करें। यह उल्लेख सामाजिक इतिहास में, मानवजाति के इतिहास में स्वर्णांकित उल्लेख है। जिन शासकों ने साम्प्रदायिक आग्रह से काम लिया उनके राज्य खंड-खंड होकर बिखर गए और प्रजा भी बहुत दुःखी हुई। अधिकार-सम्पन्न व्यक्ति का यह कर्तव्य होता है कि वह सभी को विकास का अवसर दे। जाति-भेद और सम्प्रदाय-भेद को वह दफनाकर चले। वह समन्वय का वातावरण बनाए और समन्वय की नींव पर अपने निर्णय ले।
महाराजा रणजीतसिंह जी बहुत बड़े अनुभवी शासक थे। उनका यश सर्वत्र व्याप्त था। उनके राज्य में हिन्दू भी सुखी थे, मुसलमान भी सुखी थे। एक बार ऐसा हुआ, मुसलमानों का उत्सव-दिवस था। ताजिया निकल रहा था । सारे शहर में धूमधाम थी। जिस मार्ग से ताजिया गुजर रहा था, वहां एक स्थान पर बहुत बड़ा वटवृक्ष था । मार्ग संकरा था । ताजिये का ऊपरी हिस्सा वटवृक्ष से टकरा रहा था । मुसलमान भाइयों ने उस वटवृक्ष की डाली को काटना चाहा, जिससे कि ताजिया वहां से निकल सके, आगे बढ़ सके । वटवृक्ष की शाखा को काटने की बात हिन्दुओं को चुभ गई। वे अड़ गए । टकराव की स्थिति बन गई । दोनों ओर से उत्तेजना की स्थिति बनी। मरमिटने के लिए दोनों ओर से व्यक्ति तैयार थे । वात तन गई । स्थिति तनावपूर्ण बन गई । महाराजा रणजीतसिंहजी को पता चला। वे तत्काल उस स्थान पर आए, स्थिति का अध्ययन किया। समन्वय के आलोक में समस्या पर विचार किया और अचानक एक समाधान उनके मस्तिष्क में उभर आया । उन्होंने तेज आवाज में कहा--हिन्दू भाई अपने स्थान से सौ कदम पीछे हट जाएं और मुसलमान भाई भी अपने स्थान से सौ कदम पीछे हट जाएं। दोनों पीछे हट गए । तब महाराजा ने अपने कर्मचारियों को आदेश दिया कि जो सड़क ऊंची है उसे खोदकर नीची कर दें। सड़क की खुदाई हुई । उसको ठीक कर दिया गया। फिर महाराजा ने मुसलमानों से कहाअब ताजिये को धीरे से आगे बढ़ाएं। ताजिया वटवृक्ष की शाखा को बिना
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