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सह-अस्तित्व और समन्वय
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हो गया, बंट गया।
भारत की प्रकृति में भेद की बात शीघ्र 'उठ खड़ी होती है। दस व्यक्ति मिलकर व्यापार प्रारम्भ करते हैं, कम्पनी का गठन होता है । काम चलता है । जब व्यापार बढ़ता है, लाभ बढ़ता है, तब आपस में टकराव होने लगता है । जो कम्पनी सफलता के शिखर को चूमने ही वाली भी कि उसमें टूट-फूट होती है । सदस्य अलग-अलग बिखर जाते हैं और तब सफलता के शिखर को छूने की बात स्वप्न-सी बन जाती है। सौ-पचास वर्षों तक साझे में काम करने वाली कम्पनियां भारत में विरल ही मिलेंगी । दस वर्ष होते-होते बंटवारा शुरू हो जाता है और कम्पनी बिखर जाती है। ऐसी ही कोई विशिष्ट चेतना है यहां के मनुष्य की। इस स्थिति के निराकरण के लिए समाजशास्त्री और धर्म-नेताओं को गंभीरता से विचार करना होगा और समन्वय की भावना को विकसित करना होगा। समाज में जीना है तो साथ में जीना होगा, फिर चाहे समाज में रहने वाले लोग भिन्न-भिन्न जाति के हों, भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों को मानने वाले हों। आदमी अकेला नहीं जी सकता । उसे साथ में जीना है। जब साथ में ही जीना है तब वैर-विरोध और संघर्ष में कैसे जिया जा सकता है ? लड़ते-झगड़ते जीना भी कोई जीना है, वह तो जीता-जागता नरक है । उसमें कोई आनन्द नहीं, खुशी नहीं, सौमनस्य नहीं, वह दुःखपूर्ण और कष्टप्रद होता है। जीवन में आनन्द और सौमनस्य तब आता है जब आदमी आदमी को सहन करना है। एक आदमी दूसरे की कमी और विशेषता को सहन करता है, भिन्न आचार और विचार को सहन करता है।
हमारी इस दुनिया में यह मनोवृत्ति सर्वत्र दिखाई देती है। दो परस्पर लड़ते हैं तब एक कहता है-इस गांव में या तो मैं रहूंगा या यह रहेगा। दोनों एक साथ इस गांव में नहीं रह सकते। पार्टी के सदस्यों में टकराव होता है। दो पार्टियां बन जाती हैं। दोनों एक-दूसरे के अस्तित्व को खत्म करने का प्रयत्न करती हैं। ___ आदमी भूल जाता है कि इस दुनिया में सबको रहने का अधिकार है। हमारी दुनिया में विरोधी वस्तुएं भी साथ-साथ रहती हैं। इस दुनिया में आग है तो पानी भी है। अंधकार है तो प्रकाश भी है। हजारों, लाखों, करोड़ों वर्ष बीत गए, हमारी दुनिया में अंधकार भी वैसा का वैसा है । अंधकार भी जी रहा है और प्रकाश भी जी रहा है। सर्दी भी जी रही है और गर्मी भी जी रही है। क्या कभी ऐसा संभव हो सकता है और अंधकार कह
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