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________________ मन की शक्ति हमारी मान्यता दूसरा तथ्य---शक्तियों के अपव्यय से बचना । सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति शक्तियों का अपव्यय करता है । आवश्यकता हो या न हो आदमी सोचता रहता है, चिन्तन करता रहता है। मस्तिष्क को एक क्षण भी विश्राम नहीं मिलता। सोते हैं तब भी वह चलता है । स्वप्न आते हैं, मस्तिष्क सक्रिय रहता है । यह शक्ति का कितना बड़ा अपव्यय है ! हम मानते हैं कि यदि मन गतिशील रहेगा, वाणी और शरीर गतिशील रहेंगे तो विकास होगा। शरीर गतिशील होगा तो शक्ति बढ़ेगी, मन गतिशील होगा तो चिन्तन की शक्ति विकसित होगी, बुद्धि बढ़ेगी और वाणी गतिशील होगी तो वक्तृत्व का विकास होगा। यह उल्टी प्रक्रिया चल रही है। वास्तविकता यह है जब मन, वाणी और काया का अप्रयोग होता है तब शक्ति का जागरण संभव बनता है। इनकी क्रियाशीलता में शक्ति कभी नहीं जाग सकती। इनसे कम काम लेना चाहिए, तभी शक्ति का जागरण हो सकता है। इनसे काम लेना ही नहीं चाहिए, यह नहीं कहा जा सकता किन्तु इनसे कम काम लेना ही श्रेष्ठ है। सक्रियता अवचेतन मन की हमारे नाड़ी-संस्थान के दो भाग हैं-एक स्वतःचालित और दूसरा है-परतःचालित । हम स्वतःचालित नाड़ी-संस्थान को हम कम काम में लेते हैं। परतःचालित नाड़ी-संस्थान का उपयोग अधिक करते हैं। इसलिए हमारी आन्तरिक शक्तियां जागृत नहीं होतीं। उन्हें जागृत होने का अवसर ही नहीं "मिलता। हमारा यह सक्रिय नाड़ी-संस्थान, जो मस्तिष्क और मेरूदंड प्रणाली के द्वारा शासित और संचालित है, जितना सक्रिय रहता है उतनी ही हमारी आन्तरिक शक्तियां दबी रह जाती हैं। जब हम उस नाड़ी-संस्थान को अनुशासित करते हैं, उसकी सक्रियता को कम करते हैं तब आन्तरिक सक्रियता, अवचेतन मन की सक्रियता अपने-आप बढ़ जाती है। अवचेतन मन की सक्रियता बढ़ने का अर्थ है---शक्ति का जागरण । शक्तियों का स्रोत फूट पड़ता है, खुल जाता है। शक्ति-जागरण के लिए यह अत्यन्त अपेक्षित है कि स्थूल या चेतन मन की सक्रियता को, नाड़ी-संस्थान की सक्रियता को कम कर आन्तरिक मन की सक्रियता को बढ़ाया जाए। 'प्राणधारा तीसरा तथ्य है-प्राणधारा को निश्चित दिशा में वहाना । जब हम प्राणधारा को एक निश्चित दिशा में प्रवाहित करते हैं तब एक बिन्दु ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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