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मन की शक्ति
शक्ति की साधना
___ कोइ भी व्यक्ति अकेला नहीं जीता। कोई भी व्यक्ति केवल सामाजिक जीवन नहीं जीता । व्यक्ति अपना व्यक्तिगत जीवन भी जीता है और वह सामाजिक सहयोग से जीता है, इसलिए वह सामाजिक जीवन भी जीता है। वही समाज शक्तिशाली होता है, जिस समाज में व्यक्ति स्वतंत्र, चिन्तनशील, स्वस्थ, कर्मठ और सब ओर से समाज को सिंचन देने वाला होता है । दुर्बल व्यक्तियों का समाज भी दुर्बल होता है। संसार में सबसे पहली और सबसे अधिक जरूरत है शक्ति की। शक्तिशून्य कुछ भी नहीं होता। संभवतः शक्तिशून्य व्यक्ति को संसार में जीने का अधिकार भी नहीं होता। शक्ति हमारे जीवन की, समाज और व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकता है। शरीर स्वस्थ और सुदृढ़ होता है तो शरीर की शक्ति अधिक होती है। किन्तु केवल शरीर की शक्ति से ही कोई व्यक्ति शक्तिशाली नहीं होता। शरीर से अधिक शक्तिशाली होता है मन । जिसका मन दुर्बल होता है, उसका शरीर शक्तिशाली होने पर भी बहुत भला नहीं होता। शक्ति का सूत्र
शारीरिक शक्ति के लिए भी मन की शक्ति का होना बहुत जरूरी है। ऐसे लोग भी होते हैं, जो शरीर से सुदृढ़ और शक्तिशाली हैं पर मनोबल इतना कमजोर होता है कि वे छोटी-सी अप्रिय घटना से विचलित हो जाते हैं, मनोबल टूट जाता है । मन का बल टूटता है तो साथ-साथ शरीर का बल भी टूट जाता है। मन मजबूत होता है तो शरीर भी साथ देता है। जैसे ही मन दुर्बल होता है, शरीर की शक्तियां क्षीण होने लग जाती हैं । शारीरिक शक्ति भी हो, मन की शक्ति भी हो तो आदमी दस आना शक्तिशाली होता है। भावना की शक्ति का योग होता है तब आदमी सोलह आना शक्तिशाली होता है। शरीर की शक्ति, मन की शक्ति और भावना की शक्ति होने पर ही आदमी पूरा शक्ति-सम्पन्न होता है। यदि हम केवल शरीर को साधने का ही प्रयत्न करें, पोष्टिक भोजन करें, रसायनों का सेवन करें, पोषणशास्त्रियों ने पोषण के जो तत्त्व बतलाए हैं, उनका उपयोग करें, शरीर को खूब अच्छी तरह पालें-पोषे और मन की ओर ध्यान न दें, भावना की ओर ध्यान न दें तो वह पोषण केवल मांस और रक्त बढ़ाने वाला हो सकता
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