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________________ ६६ चित्त और मन का योग होता है— वैषम्य का विनाश । वैषम्य ही मानसिक रोग, शारीरिक रोग और पाप है । साम्य ही स्वस्थता और धर्म है । साधु के लिए विधान है कि वह गोचरी से आने के बाद भोजन से पूर्व क्षण-भर विश्वास करे'वीतमेज्ज खण मुणी' । तेज चलकर आने से धातुएं विषम बन जाती हैं । उस समय खाया हुआ अमृत भी जहर बन जाता है। पं० लालन ने आचार्य श्री से कहा - 'साधुओं के बीमार होने का एक कारण उनकी गोचरी है । गोचरी से आते ही जो आहार करते हैं, वे बीमारी को निमंत्रण देते हैं । कठोर परिश्रम के बाद तत्काल खाने और पीने से रोग पैदा हो जाते हैं । धातुओं को सम करने के लिए दस-पन्द्रह मिनट तक विश्राम करना चाहिए। मन की उच्चावच अवस्था में भी नहीं खाना चाहिए । क्रोध, काम-वासना लोभ आदि मानसिक भावों में किया गया भोजन विष रूप में बदल जाता है । विषमता आध्यात्मिक दोष ही नहीं है, शारीरिक और मानसिक दोष भी है । समता आध्यात्मिक गुण ही नहीं है, शारीरिक और मानसिक गुण भी है । प्राण और अपान की विषमता यानि शरीर और मन की स्वस्थता | प्राण और अपान की समता यानी शरीर और मन की स्वस्थता ॥ बीमारी का कारण है भाव बीमारी पैदा होने के अनेक कारण माने गए हैं - वातावरण, खानपान, शरीरगत दोष, कीटाणु, आनुवंशिकता आदि । अतीत के भाव भी बीमारी उत्पन्न करते हैं । हमने अतीत में जो संचय किया था, वह भी बीमारी उत्पन्न कर रहा है पर हमारे पास इसे जानने का कोई साधन नहीं है । हम इस दृष्टि से असहाय हैं । यदि यह अध्याय खुल जाए तो चिकित्सा जगत् में बहुत बड़ी क्रांति घटित हो सकती है । भाव- चिकित्सा के द्वारा इस अध्याय को खोला जा सकता है । यह अपने दायित्व की अनुभूति की प्रणाली है । जब व्यक्ति जान जाता है कि इस अमुक बात के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है तो बीमारी आधी रह जाती है । और जब व्यक्ति ऐसा मानता है कि यह तो किसी दूसरे के कारण है तो वह अपना दायित्व अनुभव नहीं करता और बीमारी की भयंकर वेदना भोगता है । जब वह दायित्व स्वयं पर ओढ़ लेता है तब दूसरों को दोष नहीं देता है, स्वस्थ होने लग जाता है । कर्मज बीमारी आयुर्वेद में रोग के अनेक कारण बतलाए गए हैं । उनमें एक कारण 'कर्म' भी है। बीमारी कर्मज भी होती है यह कर्मज बीमारी भागवत बीमारी है । भावों के अर्जन और संचय के आधार पर बीमारियां उत्पन्न होती हैं । जब स्वास्थ्य सम्बन्धी चर्चाएं चलती हैं तब यह जानकारी दी जाती है कि क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए। किस प्रकार के भोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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