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________________ चित्त और मन है, जो हमारी आंखों के सामने न हो। कोई भी ज्योति के पुञ्ज और परमाणु ऐसे नहीं हैं, जो हमारी आंखों के सामने न हों। जितने वर्ण, जितने गंध, जितने रस और जितने स्पर्श इस दुनिया में श्रेष्ठ या अश्रेष्ठ मिलते हैं, वे सारे के सारे हमारी आंखों के सामने नृत्य कर रहे हैं किन्तु उन्हें हम नहीं पकड़ पा रहे हैं। इन आंखों से सौ वर्ष तक देखते चले जाएं फिर भी नहीं पकड़ पाएंगे । प्रश्न है हमें क्या करना होगा ? इसके लिए हमें प्राण में मन को सम करना होगा। जैसे ही प्राण में मन को सम किया और सूक्ष्म जगत् के साथ हमारा संपर्क स्थापित हो गया, फिर रंग दिखाई देंगे, ज्योति दिखाई देगी, विचित्र प्रकार की दुनिया दिखने लग जाएगी। यह कोई काल्पनिक दुनिया नहीं है, कृत्रिम दुनिया नहीं है । विचित्र सृष्टि हमारे आस-पास विद्यमान है, उसे देखने की क्षमता होनी चाहिए। जिसने सूक्ष्म जगत् में प्रवेश किया जिसका सूक्ष्म जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित हो गया उसे विचित्र प्रकार की दुनिया दिखाई देने लग गई। कभी-कभी ध्यान में इस प्रकार के रंगों का दर्शन होता है कि वैसे रंग इस दुनिया में देखने को कभी नहीं मिलते। इतने सुन्दर, तेज और ज्योतिर्मय । शायद बाहरी दुनिया में इन स्थूल आंखों से देखने का स्वप्न भी नहीं ले सकते । जब हमारा सूक्ष्म जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित होता है, ये सारी बातें, घटित होने लग जाती हैं, शब्द भी सुनाई देने लग जाते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में या अपर मस्तिष्क में ऐसे यंत्र हैं, जिनसे सूक्ष्म बातों को भी सुन सकते हैं। जब अन्तर्शक्ति काम करने लग जाती है तब ये सारी बातें घटित होने लग जाती हैं । यह न कोई चमत्कार है, न कोई प्रदर्शन है । यह केवल सूक्ष्म जगत् में प्रवेश करने का एक प्रयोग है, प्राण और मन को सुषुम्ना में ले जाने का प्रयोग है। प्राण प्रयोग हम संकल्प को सिद्ध कर मन को सुषुम्ना में ले जा सकते हैं। जब संकल्प के द्वारा हाथ ऊपर जाने लगता है तब करेंट का धक्का-सा आता है। यह प्राणधारा है । जिधर हमारे प्राण की धारा बहने लग जाती है, जिधर हमारा संकल्प जाता है, उधर ही प्राण की धारा का मुक्त प्रवाह हो जाता है। संकल्प के साथ-साथ प्राण जाता है। भगीरथ के पीछे जैसे गंगा चली थी या आदमी के पीछे-पीछे छाया चलती है, वैसे ही संकल्प के साथ-साथ प्राण की धारा चलती है । जिस दिशा में संकल्प कर लिया, उस दिशा में ही प्राण की धारा का मुख्य प्रवाह हो जाएगा। प्राण की धारा इतनी तेज हो जाती है कि करेंट का धक्का-सा लगता है, हाथ सहन नहीं कर सकता। अकस्मात् हाथ इस प्रकार उछलता है कि मानो किसी ने आकर झटका दिया है। हमारे भीतर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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