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चित्त और मन
" एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ।' एक आलम्बन पर चिन्तन को रोके रखना ध्यान है । हमारा चिन्तन अनेक विषयों पर चलता रहता है, वह ध्यान नहीं है । किन्तु जब वह चिन्तन एक विषय पर स्थिर हो जाता है, तब वह ध्यान होता है ।
ध्यान और चिन्तन
चिन्तन में एक संतति का होना आवश्यक नहीं है किन्तु ध्यान में एक संतति का होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । इसी आशय को लक्ष्य में रखकर ध्यान की एक परिभाषा की गई है— 'विषयान्तरास्पर्शवती चित्तसन्ततिर्ध्यानम् - चित्त की वह संतति --- प्रवाह जो अवलम्बित विषय के अतिरिक्त दूसरे विषयों का स्पर्श नहीं करती, ध्यान कहलाती है । इससे फलित होता है कि ध्यान सामान्य चिंतन नहीं है किन्तु एक ही विषय पर जो चिंतन की धारा प्रवहमान होती है, वह ध्यान है जल की एक बूंद गिरती है और टूट जाती है । दूसरी बूंद गिरती है और फिर क्रमभंग हो जाता है। इस प्रकार क्रमभंग कर गिरने वाली बूंदों से ध्यान की तुलना नहीं की जा सकती । ध्यान की तुलना उस धार से की जा सकती है, जिसमें क्रमभंग नहीं होता । उक्त परिभाषाओं से फलित होता है कि ध्यान स्थिरता की दिशा में बढ़ने वाला चिंतन है । इसी आशय को 'एकाग्रे मनः सन्निवेशनं' के द्वारा व्यक्त किया गया है ।
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अमनस्क योग की भूमिका मानसिक विकास की अगली भूमिका है अमनस्क योग की भूमिका । यहां मन समाप्त हो जाता है । विकास आगे बढ़ जाता है । एक छलांग होती है अमनस्क योग की । आदमी वहां पहुंच जाता है जहां कोई विचार नहीं, कल्पना नहीं, केवल प्रकाश और केवल चैतन्य । कोई दुःख नहीं, कोई कष्ट नहीं, केवल आनन्द की अनुभूति । इस भूमिका को भारतीय दार्शनिकों ने विभिन्न प्रकार से अभिव्यक्त किया है । किसी ने इसे सत्, चित् और आनन्द की भूमिका माना है । यही है सत्यं शिवं सुन्दरं की भूमिका । यही है अमनस्क की भूमिका । इस कोटि के प्राणी बहुत कम होते हैं, जिन्हें सत्य की झलक मिल जाती है, सत्य का साक्षात्कार हो जाता है और यह बोध हो जाता है कि सुख की वास्तविक स्थिति अमनस्कता में है ।
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