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मन की अवस्थाएं
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कणिका है । चार पत्रों और कणिका पर क्रमशः अ, सि, आ, उ, सा लिखा हुआ है। प्रत्येक अक्षर ज्योतिर्मय है और वह प्रदक्षिणा करता हुआ घूम रहा है । यह कल्पना पुष्ट होगी तो दूसरी कल्पनाएं अपने आप विलीन हो जाएंगी।
दो नासाग्र, दो आंख, दो कान और एक मुख-ये सात रन्ध्र हैं । इन पर क्रमशः ण, मो, अ, र, हं, ता, णं-इस मंत्र जप के साथ ध्यान किया जाए। वर्ण और स्थान का ध्यान साथ-साथ हो। इससे मन शेष कल्पनाओं से मुक्त हो जाता है । इस प्रकार सैकड़ों उपाय साधना की लम्बी परम्परा से प्राप्त होते हैं। समत्व-प्रतिष्ठित
वृत्तियां दबी रहती हैं । वे निमित्त का योग पाकर उत्तेजित होती हैं और उभर आती हैं। उनकी उत्तेजना का बहुत बड़ा निमिस है--विषमता। जब-जब मन में विषमता के भाव आते है, तब-तब वह चंचल, अधीर और विक्षिप्त हो जाता है। अमुक व्यक्ति ने मेरा सम्मान किया है और अमुक ने अपमान । सम्मान और अपमान की स्मृति होते ही मन चंचल हो उठता है। किन्तु जिसका मन सम्मान और अपमान—दोनों को ग्रहण नहीं करता, दोनों को आत्मा से बाह्य मानता है, उसका मन समता में प्रतिष्ठित रहता है। उसे सम्मान और अपमान की स्मृति ही नहीं होती तब वह उसके कारण चंचल, अधीर या अशान्त कैसे हो सकता है ? इस प्रकार राग-द्वेष जनित जितनी विषमताएं हैं, उनका ग्रहण नहीं करने वाला मन समता में प्रतिष्ठित होता है। आत्माराम
यह गुप्त मन की तीसरी अवस्था है। इसमें चेतना के अतिरिक्त कोई बाह्य आलम्बन नहीं होता। मन आत्मा में विलीन हो जाता है । वह कषाय (क्रोध आदि के रंगों) से मुक्त होकर शुद्धोपयोग (शुद्ध चेतना) में परिणत हो जाता है। इस स्थिति को इन शब्दों में भी समझाया जा सकता है कि यहां शुद्ध चेतना या चैत्य पुरुष से भिन्न मन का कोई अस्तित्व ही नहीं रहता। ध्यान का अर्थ
संस्कृत की एक धातु है--'ध्ये चिन्तायाम् । ध्यान शब्द इस धातु से निष्पन्न हुआ है। इस धातु के अनुसार ध्यान शब्द का अर्थ होता हैचिन्तन ।
चिन्तन का प्रवाह चंचलता की ओर जाता है और ध्यान का प्रवाह स्थिरता की ओर। इसी आधार पर ध्यान की एक परिभाषा मिलती है
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