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चित्त और मन पहली कक्षाओं में शारीरिक परिवर्तन से होने वाली आनंदानुभूति होती है किन्तु उसमें सहज आनंद का प्रतिबिम्ब या प्रभाव रहता ही है। मन की दो अवस्थाएं
__ मन की दो अवस्थाएं हैं-गत्यात्मक और स्थित्यात्मक । गत्यात्मक अवस्था को मन और स्थित्यात्मक अवस्था को ध्यान कहा जाता है। ध्यान करते समय मन संकल्पों से भर जाता है। एक-एक कर पुरानी स्मृतियां उभरने लग जाती हैं। सहज प्रश्न होता है-इसका क्या कारण है ? जब मन की प्रवृत्ति होती है तब उतनी चंचलता नहीं होती जितनी उसको स्थिर करने का प्रयत्न करने पर होती है। हम गहराई में जाएं तो पाएंगे कि चेतना चचल नहीं होती। मन चेतना का एक अंश है। वह कैसे चंचल हो सकता है ? वह वृत्तियों के चाप से चंचल होता है । वृत्तियों का जितना चाप होता है, उतना ही वह चंचल होता है और वृत्तियां जितनी शान्त या क्षीण होती हैं, उतना ही वह स्थिर होता है। यही ध्यान है। तालाब का जल स्थिर पड़ा है। उसमें एक ढेला फेंका और वह चंचल हो गया। यह चंचलता स्वाभाविक नहीं किन्तु बाह्य संपर्क से उत्पन्न है। ठीक इसी प्रकार मन की चंचलता भी स्वाभाविक नहीं किन्तु वृत्तियों के संपर्क से उत्पन्न होती है । मन की चंचलता एक परिणाम है, वह हेतु नहीं है। उसका हेतु है-वृत्तियों का जागरण । मनोगुप्ति
वृत्तियां दो प्रकार की होती हैं-सत् और असत् । पहला चरण है असत् से सत् की ओर जाना और दूसरा चरण है असत् को क्षीण करना । असत् में मन चंचल रहता है, सत् में शान्त और असत् को क्षीण करने पर वह अतिमात्र शान्त हो जाता है । इस सारी प्रक्रिया को मनोगुप्ति कहा जाता है। गुप्त मन की तीन अवस्थाएं हैं।
१. कल्पना-विमुक्त २. समत्व-प्रतिष्ठित ३. आत्माराम
विमुक्तं कल्पनाजालं, समत्वेष प्रतिष्ठितम् ।
आत्मारामं मनश्चेति, मनोगुप्तिस्त्रिघोदिता ॥ कल्पना-विमुक्त
मन को एक साथ खाली नहीं किया जा सकता। उसे असत् कल्पनाओं से मुक्त करने के लिए सत् कल्पनाओं का आलम्बन लिया जाता है। इन कल्पनाओं का विशद वर्णन प्राचीन साहित्य में मिलता है।
हम कल्पना करें-हृदय कमल है। उसके चार पत्र हैं । बीच में एक
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