________________
मन की अवस्थाएं
३७
ध्येय की स्मृति भी समाप्त हो जाती है। इसका अर्थ यह है कि मन का अस्तित्व या उसकी गतिक्रिया समाप्त हो जाती है । यह निरालम्बन ध्यान या सहज चैतन्य के उदय की भूमिका है। इसमें प्रत्यक्षानुभूति प्रबल हो जाती है, इंद्रिय और मन, जो परोक्षानुभूति के माध्यम हैं, अर्थहीन बन जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं। चैतन्य और आनन्द
चैतन्य और आनन्द का स्वाभाविक सम्बन्ध है। जहां चैतन्य है, वहां आनन्द है और जहां आनन्द है, वहां चैतन्य है। इन दोनों में से एक को पृथक नहीं किया जा सकता । प्रत्येक मनुष्य के भीतर जैसे चैतन्य का अजस्र प्रवाह है वैसे ही आनन्द का भी अजस्र प्रवाह है किन्तु मन की चंचलता के कारण उसकी अनुभूति निरन्तर नहीं होती।
कोई आदमी कुछ कहता है, उस समय यदि हमारा मन चंचल होता है तो हम उसकी बात को सुन ही नहीं पाते और यदि सुन पाते हैं तो उसे पूरी तरह पकड़ नहीं पाते। ठीक इसी प्रकार मन की चंचलता के कारण अपने भीतर बहने वाले आनन्द के प्रवाह का हम स्पर्श नहीं कर पाते। जिस भूमिका में मन थोड़ा स्थिर होता है, उस समय आनन्द की हल्की-सी अनुभूति हो जाती है । जैसे-जैसे मन की स्थिरता की मात्रा बढ़ती है, वैसे-वैसे आनन्दानुभूति की मात्रा बढ़ती जाती है। मन का निरोध होने पर सहज आनन्द का साक्षात्कार हो जाता है। भूमिका से जुड़ा सुख
मन की दूसरी और तीसरी कक्षा में विकल्पों, कल्पनाओं का सिलसिला चालू रहता है । मन दूसरी-दूसरी चीजों में अटका रहता है। फलस्वरूप उस समय हम सहज चेतना के स्तर पर नहीं होते। उस समय जो आनन्द का अनुभव होता है, वह मन की एकाग्रता के कारण अन्तःस्रावी नलिकाओं में होने वाले अन्तःस्राव से होता है।
चौथी और पांचवीं कक्षा में विकल्पों का सिलसिला नहीं रहता। हमारा मन एक ही विकल्प पर स्थिर हो जाता है। हमारे मस्तिष्क की सुखानुभूति की ग्रंथि तथा अन्तःस्रावी नलिकाओं पर उसका अधिक प्रभाव होता है। फलस्वरूप आनंद की अनुभूति अधिक होती है।
निरोध की कक्षा में सहज आनन्द के साथ साक्षात संपर्क हो जाता है। उस पर शारीरिक परिवर्तन का प्रभाव नहीं होता इसलिए वह चिरस्थायी होता है।
पहली कक्षाओं में सहज आनन्द की अनुभूति नहीं होती है, ऐसी बात नहीं है किन्तु उसकी पूर्ण अनुभूति निरोध की कक्षा में होती है इसीलिए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org