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चित्त और मन
की ओर झांकने की भावना जागृत होती है । वह इस भावना की पूर्ति के लिए अन्तर्निरीक्षण अर्थात् ध्यान का प्रयोग प्रारम्भ करता है ।
प्रारम्भ में कुछ समय तक ध्याता ध्यान करने की मुद्रा में बैठ जाता है किन्तु अन्तर्निरीक्षण की स्थिति का उसे कोई अनुभव नहीं होता । किसी के लिए यह स्थिति थोड़े समय के लिए होती है और किसी-किसी के लिए लम्बे समय तक चली जाती है। जो इस स्थिति से घबराकर अन्तर्निरीक्षण के अभ्यास को छोड़ देता है, वह बीच में ही रुक जाता है और जो इस स्थिति से घबराता नहीं है, वह अगली भूमिकाओं में पहुंच जाता है ।
यातायात
विक्षिप्त की अगली भूमिका संधि की है। इस भूमिका में ध्याता का मन अन्तर्निरीक्षण का अनुभव कर लेता है । यद्यपि वह उसमें लम्बे समय तक टिक नहीं पाता । अन्तर्निरीक्षण करते-करते फिर बाहर आ आता है । फिर अन्तर्निरीक्षण का प्रयत्न करता है और फिर बाहर आ जाता है । किन्तु इस भूमिका में एक बड़ा लाभ यह होता है कि अन्तर्निरीक्षण का जो द्वार बन्द था, वह खुल जाता है ।
श्लिष्ट
अन्तर्निरीक्षण का अभ्यास बढ़ते-बढ़ते मन एक विषय पर एकाग्र रहने लग जाता है । इस भूमिका में ध्येय के साथ ध्याता का श्लेष हो जाता है । जिस प्रकार गोंद से दो कागज चिपक जाते हैं, उसी प्रकार ध्याता का ध्येय के साथ चिपकाव हो जाता है किन्तु चिपके हुए दो कागज आखिर दो ही रहते हैं । उनमें एकात्मकता नहीं होती ।
सुलीन
एकाग्रता का अभ्यास क्रमशः बढ़ता है । उसकी वृद्धि एक दिन तन्मयता या लीनता के बिन्दु तक पहुंच जाती है। यह मन की पांचवीं अवस्था है । पानी दूध में मिलकर जैसे अपना अस्तित्व खो देता है, वैसे ही इस भूमिका में ध्याता ध्येय में इतना तन्मय हो जाता है कि उसे अपने अस्तित्व का भान ही नहीं रहता । यह स्थिति पहले ही चरण में प्राप्त नहीं होती किन्तु पूर्वोक्त क्रम से निरन्तर आगे बढ़ते रहने से एक दिन यह स्थिति अवश्य प्राप्त हो जाती है ।
निरुद्ध
पांचवी भूमिका में मन की स्थिरता शिखर तक पहुंच जाती है । किन्तु मन का अस्तित्व या उसकी गति समाप्त नहीं होती । ध्याता ध्येय में लीन होकर कुछ समय के लिए जैसे अपने उपलब्ध अस्तित्व को भुला देता है किन्तु ध्येय की स्मृति उसे बराबर बनी रहती है । छठी भूमिका में वह
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