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मन की अवस्थाएं
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प्रत्येक क्षेत्र की यही स्थिति है । कृष्ण से पूछा गया - मन का निग्रह - कैसे किया जाए ? उत्तर मिला
'असंशयं महावाहो, मन दुनिग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन च कीतेय ! वैराग्येण च गृह्यते ॥'
अभ्यास कृत होता है, अर्जित नहीं । वैराग्य स्वभाविक होता है, कृत नहीं । योग के आचार्य पतंजलि ने भी यही कहा है- 'अभ्यास और वैराग्य से मन का निरोध होता है ।' अभ्यास करते-करते निरोध की अन्तिम सीढी तक पहुंचा जा सकता है । अभ्यास से लब्ध नहीं होता तो पुरुषार्थं निष्फल हो जाता । अभ्यास से जो कल नहीं थे, आज बन सकते हैं ।
प्रश्न मानसिक विकास का
मन का विकास कैसे हो ? इस प्रश्न पर आचार्य हेमचन्द्र ने भी प्रकाश डाला है । उन्होंने इसके लिए चार भूमिकाओं का उल्लेख किया है१. विक्षिप्त
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२. यातायात ३. श्लिष्ट
४. सुलीन ।
उन्होंने योगशास्त्र में अन्तिम अध्याय को छोड़कर पूर्व के सभी अध्यायों में परम्परागत ( सैद्धान्तिक ) ध्यान के विषय का सुन्दर प्रतिपादन किया है । अंतिम अध्याय में वे अपनी अनुभूतियां कहते हैं । अनुभूतियों में मार्मिकता है, आत्मा का स्पर्श है । कहीं-कहीं पर उनमें इतनी बेघकता आयी है, जितनी अन्यत्र कम है ।
विक्षेप
यह पहली भूमिका है । इसमें साधक ध्यान करना प्रारंभ करता हैं और मन को जानने का प्रयत्न करता है । वह अनुभव करता है कि मन चंचल है। दिल्ली में साधना शिविर चल रहा था । एक भाई ने प्रश्न किया—ध्यान नहीं करता हूं तब मन स्थिर रहता है, ध्यान में मन अधिक चंचल हो जाता है, यह क्यों ?
मैंने कहा - ध्यान नहीं करते थे उस समय मन स्थिर था, यह भ्रांति है । अंकन में भूल है । ध्यान करने की स्थिति में आए तब अनुभव हुआ - मन चंचल होता है। गांव के बाहर अकूरडी कचरे का ढेर है । हजारों उस पर चलते हैं, पर दुर्गन्ध की अनुभूति नहीं होती । उसकी सफाई के लिए कुरेदने पर बदबू भभक उठती है । क्या पहले दुर्गन्ध आती थी ? नहीं, जमा हुआ ढेर था, दुर्गन्ध दबी हुई थी। मन की भी यही प्रक्रिया है । मन में विचारों, मान्यताओं और धारणाओं के संस्कार जमे पड़े हैं । अनुभव नहीं होता कि मन चंचल है ।
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