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चित्त और मन
स्मृति । एक आलम्बन पर सतत स्मृति का रहना एकाग्रता है। उस काल में दूसरी स्मृति न आए। दूसरी स्मृति आते ही एकाग्रता खंडित हो जाती है । यदि हम स्मृति पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं तो एकाग्रता सधती जाती है । हम देखते हैं स्मृति का चक्र चलता रहता है। एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी, चौथी स्मृति उभरती रहती है और अतीत अनावृत होता जाता है। यदि हम ध्यानकाल में स्मृति पर नियंत्रण रख लेते हैं, जिस स्मृति को हमने पकड़ा है, वही स्मृति निरन्तर बनी रहे, दूसरी स्मृति न आए तो यह स्मृति का सातत्य एकाग्रता बन जाती है। एकाग्रता ध्यान है। इसलिए ध्यान करने वाले व्यक्ति के लिए मन के इस रूप को पकड़ना जरूरी हो जाता है।
मन को जीतने का उपक्रम
___ हम कहते हैं-मन को जीतो। प्रश्न होता है-मन को जीतने का तात्पर्य क्या है ? मन पकड़ में नहीं आता, फिर उसको कैसे जीता जाए ? मन को जीतने का पहला अर्थ है-स्मृति का नियोजन करना। मन पर पहली जीत है-सतत स्मृति का अभ्यास । एक ही स्मृति पर दीर्घकाल तक टिक जाना, मन पर विजय है । मन का कार्य है-स्मृतियों को सतत बदलते रहना । जब हम एक ही स्मृति का काल दीर्घ कर लेते हैं तब मन का कार्य गौण हो जाता है और अपनी चेतना का प्रभुत्व स्थापित हो जाता है । सतत स्मृति का एक अर्थ है शेष की विस्मृति । यह सतत स्मृति का फलित है। सतत स्मृति और विस्मृति का योग-यह मन पर पहली विजय है । कल्पना और ध्यान
कल्पना के बिना भी ध्यान नहीं होता। कोई न कोई कल्पना का सहारा लेना होता है। निर्विकल्प ध्यान प्रारंभ में अत्यन्त कठिन होता है। पहले कल्पना करनी होती है, फिर वह कल्पना चाहे स्थूल की हो या सूक्ष्म की। हमने एक कल्पना ली-हम विशाल प्रांगण में बैठे हैं और अपने आपको विशाल रूप में अनुभव कर रहे हैं। यह व्यापकता की कल्पना है। कल्पना की-हम रुई से भी अधिक हल्के हो गए हैं या शीशे की भांति अत्यन्त भारी हो गए हैं। ये सारी कल्पनाएं ध्यान में सहयोगी बनती हैं। जैसी कल्पना होती है, वैसा अनुभव भी होने लग जाता है। प्रश्न होता है कि इसका लाभ क्या है ? जब हम एक कल्पना में अपनी चेतना का नियोजन कर देते हैं तब शेष सारी कल्पनाएं और विकल्प रुक जाते हैं । यह है कल्पना को संकल्प में बदलना। यह मन पर हमारी दूसरी विजय है।
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