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मन का स्वरूप
ध्यान करने वाले व्यक्ति के लिए या व्यवस्थित कार्य करने वाले व्यक्ति के लिए मन के स्वरूप को समझना बहुत जरूरी है और मन को समझने के लिए उसके कार्य को समझना आवश्यक है। स्मृति, कल्पना और विचारइनके द्वारा मन को समझा जा सकता है। ये तीनों मानसिक क्रियाएं हैं। ध्यान में ये तीनों बाधक भी बन सकती हैं और साधक भी बन सकती हैं । जब इनका सम्यग नियोजन नहीं होता है तब ये बाधक बन जाती हैं और जब इनका सम्यग् नियोजन कर दिया जाता है तब ये साधक भी बन सकती हैं। स्मृति
हमारे संस्कारों का जागरण होता है, स्मृतियां उभरती रहती हैं । जो हमने देखा है, सुना है, अनुभव किया है, वे सब हमारे मस्तिष्क में संचित रहते हैं। स्मृति के प्रकोष्ठक हैं। उनमें और सूक्ष्म-शरीर में ये संचित रहते हैं। दोनों से सम्बन्ध है। वे संचितभाव धारणा बने हुए हैं। वे धारणाएं निमित्त और उद्दीपन पाकर समय-समय पर जागृत होती रहती हैं। हम जो देखते हैं, सुनते हैं, उनका निश्चय होता है। निश्चय होने के बाद वह बात धारणा में चली जाती है, स्मृति-चिह्न बन जाती है और वे स्मृति-चिह्न उभर कर स्मृति के रूप में प्रकट होते हैं। जो कुछ भी देखा उसके स्मृतिचिह्न नहीं बनते । बहुत सारी बातें हम देखते हैं, सामने आती हैं, चली जाती हैं । जिनका अध्यवसाय नहीं होता, निर्णय नहीं होता, वे स्मृति-चिह्न नहीं बनते । जिनका अध्यवसाय हो जाता है, जिनकी धारणा बन जाती है, वे धारणाएं संचित रहती हैं, अविच्युत बनी रहती हैं, निमित्त के साथ प्रकट होती हैं। स्मृति और प्रत्यभिज्ञा
स्मृति का दार्शनिक अर्थ है-'संस्कारप्रबोधसम्भवा स्मृतिः'-संस्कार के जागरण से उत्पन्न होने वाला ज्ञान स्मृति है । स्मृति का आकार है 'वह'। दो बातें हैं । एक है-स्मृति और दूसरी है-पहचान । पहचान अलग होती है, स्मृति अलग होती है। स्मृति का आकार होता है 'वह'। स्मृति में वस्तु, व्यक्ति प्रत्यक्ष नहीं होता, परोक्ष ही रहता है किन्तु पहचान में वह प्रत्यक्ष ही होता है। इसीलिए स्मृति का आकार बनता है 'वह' और पहचान का आकार बनता है-'यह वह'। 'वह यह-इसमें स्मृति और पहचान
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