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गीतराग : अवोतराग
हमारे जीवन की दो अवस्थाएं हैं-वीतराग और अवीतराग अवस्था । जब तक आदमी अवीतराग अवस्था में जीता है, राग-द्वेष की अवस्था में जीता है, उसकी कथनी और करनी में अन्तर होता है। भगवान् महावीर ने कहा-अवीतराग या छद्मस्थ व्यक्ति का यह एक लक्षण है कि उसकी कथनी पौर करनी में अन्तर होगा। जो वीतराग होगा वह जैसा कहेगा, वैसा करेगा,
सा करेगा, वैसा कहेगा। कोई अन्तर नहीं होगा। वीतराग होने का अर्थ है-चेतना की सूक्ष्म भूमिका में प्रवेश पा जाना। यह अतीन्द्रिय चेतना की भूमिका है। अतीन्द्रिय चेतना : अनुभव चेतना
__ मनोविज्ञान ने चेतन मन और अवचेतन मन की चर्चा की है किन्तु भारतीय दार्शनिकों ने इनसे भी सूक्ष्म चेतना के स्तरों की चर्चा की है। अवचेतन मन से परे अतीन्द्रिय मन की भूमिका है। जब व्यक्ति अतीन्द्रिय मन की भूमिका पर चला जाता है तब उसके सारे विरोधाभास मिट जाते हैं। उसकी कथनी और करनी में सामंजस्य स्थापित हो जाता है । अतीन्द्रिय चेतना के स्तर पर जीने वाला व्यक्ति दोहराता नहीं, स्वयं सत्य को जीता है, अनुभव करता है। वह यह कभी नहीं कहेगा- अहिंसा अच्छी है क्योंकि महावीर मैं या बुद्ध ने उसकी गुण-गाथा गायी। वह मेंने स्वयं उसकी श्रेष्ठता साक्षात् अनुभव किया है। वैसा व्यक्ति अपनी अनुभव की भाषा में बोलेगा, उधार की भाषा में नहीं। जब तक व्यक्ति उस अतीन्द्रिय चेतना के स्तर तक नहीं पहुंचता तब तक वह दूसरों की भाषा की पुनरावृत्ति करता है, उसे दोहराता जाता है। विचार-ध्यान : एक प्रक्रिया
___ आत्म-साक्षात्कार की दो पद्धतियां हैं। एक है-सविचार-ध्यान और दूसरी है-निर्विचार-ध्यान । हम आत्मा को मानते हैं, जानते नहीं। हम शास्त्रों के आधार पर आत्मा को मानते हैं। सबसे पहले हमें श्रुत का सहारा लेना होगा, मागम का सहारा लेना होगा। जिन्हें अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध हुआ, उन्होंने अपनी अनुभव की वाणी में जो बताया, उसका सहारा लेना होगा। सबसे पहले व्यक्ति अपने आपको इस संस्कारों से भावित करे'आत्मा है। वह चैतन्यमय, अनाकार, निर्लेप, शब्दातीत, रूपातीत, गंधातीत, रसातीत और स्पर्शातीत है। वह केवल चैतन्यमय है। चैतन्य ही चैतन्य है। वह एक सूर्य है, ज्योति है, प्रकाशपुंज है । कोई अंधकार नहीं है, कोई तमस् नहीं है । इस भावना से अपने मन को भावित करे । यह आरोप करे
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