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________________ ३४० चित्त और मन संख्या बहुत अधिक हो जाती है। हमारी कोख के नीचे बहुत शक्तिशाली चैतन्य-केन्द्र है। हमारे कंधे बहुत बड़े शक्ति केन्द्र हैं। फलित की भाषा में कहा जा सकता है कि शक्ति केन्द्र और चैतन्य-केन्द्र शरीर के अवयव नहीं है किन्तु शरीर के वे भाग हैं, जिनमें विद्युत्-चुम्बकीय-क्षेत्र बनने की क्षमता है। वे भाग नाभि से नीचे पैर की एड़ी तक तथा नाभि से ऊपर सिर की चोटी तक, आगे भी हैं, पीछे भी है, दाएं भी हैं और बाएं भी हैं। जब समता ऋजुता आदि विशिष्ट गुणों की साधना के द्वारा वे केन्द्र सक्रिय हो जाते हैं, 'करण' बन जाते हैं, तब उनमें अतीन्द्रिय चेतना प्रकट होने लग जाती है। यह कोई आकस्मिक संयोग नहीं है। यह एक स्थाई विकास है। एक बार चैतन्य केन्द्र के सक्रिय हो जाने पर जीवन भर उसकी सक्रियता बनी रहती है। अतीन्द्रिय-ज्ञानी जब चाहे तब अपनी अतीन्द्रिय चेतना का करणभूत चैतन्य-केन्द्र के द्वारा उपयोग कर सकता है । वह सूक्ष्म, व्यवहित और दूरस्थ पदार्थ का साक्षात् कर सकता है । अतीन्द्रिय ज्ञान : प्रत्यक्ष ज्ञान __ अतीन्द्रिय चेतना की प्रारम्भिक अवस्था-पूर्वाभास, अतीतबोध और उसकी विकसित अवस्था की सीमा को समझा जा सकता है। मनः पर्यवज्ञान या परचित्तज्ञान भी अतीन्द्रिज्ञान है। विचार-संप्रेषण विकसित इन्द्रिय-चेतना का ही एक स्तर है। उसे अतीन्द्रिय ज्ञान कहना सहज-सरल नहीं है। विचार-संप्रेषण की प्रक्रिया में अपने मस्तिष्क में उभरने वाले विचारप्रतिबिम्बों के आधार पर दूसरे के विचार जाने जाते हैं। मनःपर्यवज्ञान में विचार-प्रतिबिम्बों का साक्षात्कार होता है। प्रत्येक विचार अपनी आकृति का निर्माण करता है। विचार का सिलसिला चलता है तब नईनई आकृतियां निर्मित होती जाती है और प्राचीन आकृतियां विसजित हो, आकाशिक रेकार्ड में जमा होती जाती हैं। मनःपर्यवज्ञानी उन आकृतियों का साक्षात्कार कर संबद्ध व्यक्ति की विचारधारा को जान लेता है। उसमें अतीत, वर्तमान और भविष्य के विचारों को जानने की भी क्षमता होती है। मानसिक चिन्तन के लिए उपयुक्त परमाणुओं की एक राशि होती है। वह परमाणुराशि हमारे चिंतन में सहयोग करती है । उसको ग्रहण किए बिना हम कोई भी चिंतन नहीं कर सकते । उस राशि के परमाणुओं के भावी परिवर्तन के आधार पर मनःपर्यवज्ञानी भविष्य में होने वाले विचार को भी जान सकता है। अतीन्द्रियज्ञान प्रत्यक्षज्ञान है। जिस ज्ञान के क्षण में इन्द्रिय और मन को माध्यम बनाना आवश्यक नहीं होता, वह ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है । इन्द्रिय और मन के माध्यम से होने वाला ज्ञान विशिष्ट कोटि का होने पर भी परोक्ष ही होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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