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मन की अवधारणा
अपूर्वकरण
___एक साधक ने कहा-'मुझे भाज ध्यान काल में ऐसा अनुभव हुआ कि पहले कभी नहीं हआ था। ग्रन्थि-विमोचन का वह अनुभव अपूर्व था। मैंने कहा-सच है। इसे 'अपूर्वकरण' कहते हैं। साधना करते-करते दो बार 'अपूर्वकरण' का अनुभव होता है। एक बार जब सम्यग् दृष्टि का पूरा जागरण होता है तब 'अपूर्वकरण' का अनुभव होता है और दूसरी बार जब साधक 'क्षपक श्रेणी' का आरोहण करता है, एक विशिष्ट पथ पर चलना प्रारंभ करता है, ध्यान की विशिष्ट श्रेणी में चढ़ता है, शुक्ल ध्यान में आरोहण करता है तब 'अपूर्वकरण' का अनुभव होता है। 'अपूर्वकरण' का अर्थ है-वह करण, जो पहले कभी नहीं हुआ था । अपूर्व वही होता है, जो पहले कभी नहीं हुआ हो। जो पहले हो जाए, वह अपूर्व नहीं हो सकता। 'करण' का अर्थ है मनोभाव । ऐसे मनोभाव का जागरण होता है, जो पहले कभी नहीं हुआ था। प्रश्न अवचेतन मन का
__ मनोविज्ञान ने जब मस्तिष्क की त्रि-आयामी व्याख्या प्रस्तुत की, तब अज्ञात को जानने का अवसर मिला। चेतन और अवचेतन मन से हम परिचित हैं। दोनों संबद्ध हैं। कभी चेतन अवचेतन मन में बदल जाता है और कभी अवचेतन मन चेतन मन में परिवर्तित हो जाता है। दोनों मिले जुले हैं। किन्तु अवचेतन मन की कल्पना नये रूप में प्रस्तुत हुई है। इस अनकोन्शियस माइंड के विषय में फ्रायड ने जो कुछ कहा, वह नई बात थी और संभवत: आज भी वह नई मानी जाती है। मनुष्य के आचरण और व्यवहार को समझने के लिए मनोविज्ञान में अवचेतन मन को बहुत महत्त्व दिया जाता है । किन्तु यह अंतिम बात नहीं है। आज का भारतीय विद्यार्थी भारत की प्राचीन परम्परा को नहीं जानता, इसलिए वह अवचेतन मन पर आकर रुक जाता है इसलिए उसे व्यक्तित्व की पूरी व्याख्या नहीं मिलती, व्यवहार और आचरण का पूरा विश्लेषण उपलब्ध नहीं होता। केवल दमित वासनाएं और इच्छाएं ही हमारे व्यक्तित्व को प्रेरित करती हैं, यह बात अधिक तथ्यपूर्ण नहीं है। भारतीय दार्शनिकों ने सूक्ष्म शरीर की बात बताई । यदि हम सूक्ष्म शरीर का अध्ययन करते तो और आगे बढ़ जाते, व्यवहार तथा आचरण की कई गुत्थियां सुलझ जातीं। सूक्ष्म शरीर
आदमी का स्थल या दृश्य शरीर ही सब कुछ नहीं है। इसके भीतर सूक्ष्म शरीर विद्यमान है। हम उसे कर्म-शरीर कहें, संस्कार-शरीर कहें या वासना-शरीर कहें, वह भीतर विद्यमान है। आदमी की प्रत्येक प्रवृत्ति,
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