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श्या और भाव
मूल्यांकन की दृष्टि
भगवान् महावीर से पूछा गया - 'भंते ! अल्प ऋद्धिवाले जीव कौन हैं ? महान् ऋद्धिवाले जीवन कौन हैं ?' भगवान् ने कहा - कृष्ण-लेश्या के जीव अल्प ऋद्धिवाले होते हैं, दरिद्र होते हैं । नील-लेश्या के जीव उनकी अपेक्षा से महर्द्धिक होते हैं, तेजोलेश्या के जीव अधिक महद्धिक होते हैं, पद्मलेश्या के जीव और अधिक ऋद्धिशाली और शुक्ल लेश्या के जीव सबसे अधिक ऋद्धिशाली होते हैं, वैभवशाली होते हैं । कृष्ण-लेश्या के जीव सबसे कम वैभवशाली होते हैं और शुक्ल लेश्या के जीव सबसे अधिक वैभवशाली होते हैं ।' महावीर ने यह नहीं कहा कि जो करोड़पति होता है, अरबपति होता है, वह महद्धिक है और जिसके पास सौ हजार ही होता है, वह अल्प ऋद्धिवाला है । उनके मूल्यांकन का दृष्टिकोण भिन्न है ।
यदि वैभवशालिता और संपदा का यह दृष्टिकोण हमारे पास होता तो मन की अशान्ति का प्रश्न इतना जटिल नहीं होता । आज समूचे विश्व में मन की अशान्ति का प्रश्न बहुत ही जटिल बना हुआ है । उसका यही कारण हैं कि आदमी संपदा को एक आंख से देखता है, बाहर की संपदा को ही संपदा मानता है । एक आंख से देखे किन्तु उसकी दूसरी आंख फूटी हुई नहीं होनी चाहिए। वह उस दूसरी से भीतरी संपदा को भी देखे, भीतर भी झांके ।
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लेश्या की भाषा
एक चारण कवि न्याय के लिए हाकिम के पास गया। हाकिम ने निर्णय ठीक नहीं किया । उसका कवि हृदय बोल उठा
सुण हाकम संग्राम, आंधो मत हूँ यार । औरां रे दो चाहिजे, थारं चाहिजे चार ॥
- हाकिम साहब अंधे मत होओ । उचित न्याय करो। दो आंखें बाहर को देखने के लिए हैं और दो भीतर को देखने के लिए चाहिए ।
लेश्या की भाषा में मैं कह सकता हूं कि हमारे भी चार आँखें होनी चाहिए। दो आंखें बाहर की संपदा को देखने के लिए और दो भीतर की संपदा को देखने के लिए। ऐसा लगता है कि बाहर की संपदा को देखने के लिए हमारी ये दो आंखें बहुत बड़ी बन जाती हैं, चार हो जाती हैं और भीतरी संपदा को देखने के लिए आंखें उपलब्ध ही नहीं हैं, आदमी अधा बना हुआ है ।
पदार्थ का लक्षण
महावीर ने लेश्या के सिद्धान्त में, लेश्या के आधार पर ऋद्धि और वैभव की चर्चा की। दो दृष्टिकोण होते हैं—एक है पदार्थ का और दूसरा है
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