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आधि : व्याधि : उपाधि
इष्ट के साथ तादात्म्य
___ आदर्श और व्यक्ति जब एकात्म बन जाते हैं तब परिवर्तन प्रारम्भ हो जाता है और व्यक्ति आदर्श के अनुरूप बन जाता है। प्रत्येक व्यक्ति बनता है अपने इष्ट और आदर्श के चुनाव के आधार पर और उसकी साधना के आधार पर।
जब तादात्म्य इष्ट के साथ हो जाता है तब छोटे-मोटे भय समाप्त हो जाते हैं। आदमी के जीवन में कितनी कठिनाइयों और समस्याएं आती हैं, छोटी-बड़ी आपत्तियां आती हैं, आदमी को उन सबका सामना करना पड़ता है किन्तु अगर व्यक्ति अपने आदर्श और इष्ट के साथ जुड़ जाता है तो वह उन आपत्तियों को सहजतया सहन कर लेता है।
जो व्यक्ति किसी महान् आदर्श के साथ नहीं जुड़ता, उसके लिए छोटी कठिनाई भी बड़ी बन जाती है। व्यावहारिक रूप से भी हम जानते हैं कि जो व्यक्ति किसी संघ से जुड़ा होता है उसकी कठिनाई सारे संघ की कठिनाई बन जाती है और व्यक्ति उससे बच जाता है। यदि व्यक्ति अकेला होता है तो छोटी कठिनाई भी बड़ी बन जाती है। व्यक्ति उसे झेलने में अपने-आपको अक्षम महसूस करता है। महत्त्वपूर्ण है भाव परिवर्तन
महान् के साथ जुड़कर व्यक्ति महान् बन जाता है । एक बंद सागर के साथ मिलकर सिन्धु बन जाती है । यदि बूंद अलग रहती है तो वह बूंद ही बनी रहती है, कभी सिन्धु नहीं बन सकती। उसका अस्तित्व शीघ्र ही समाप्त हो जाता है । ठीक वैसे ही जब हम महान् आदर्श के साथ जुड़ जाते हैं तो हम बिन्दु से सिन्धु बन जाते हैं, अन्यथा बिन्दु ही रह जाते हैं।
__ सबसे महत्त्वपूर्ण बात है भाव-परिवर्तन की। भावनात्मक जगत् की समस्याओं के उलझने और सुलझने में आदर्श का चुनाव महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । हम सही इष्ट का चुनाव करें। हमारा इष्ट शक्तिशाली होना चाहिए। हमारा आदर्श चैतन्यमय होना चाहिए, आनन्दमय होना चाहिए। यदि आदर्श कमजोर होगा तो वह लाभप्रद नहीं होगा । आदर्श चैतन्य नहीं होगा तो अंधकार में फंसा देगा, भटका देगा। आदर्श आनन्दमय नहीं होगा तो वह दुःख बिखेरेगा। कैसा हो आदर्श
___ आदर्श के लिए तीन शतें जरूरी हैं-अनन्तशक्ति, अनन्त चैतन्य और अनन्त आनन्द । आदर्श वैसा हो, जिसकी शक्ति की कोई सीमा नहीं, जिसके चैतन्य की कोई सीमा नहीं, जिसके आनन्द की कोई सीमा नहीं । यदि हम ऐसे आदर्श का चुनाव करते हैं तो इस समस्या संकुल जगत् में रहते हुए भी
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