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चित्त और मन
भाव और अध्यात्म
स्वास्थ्य केवल शरीर से जुड़ा हुआ ही नहीं होता । उसका संबंध भाव से है । भावना के स्तर पर जो आदमी बीमार नहीं होता, वही सही अर्थ में स्वस्थ होता है। भावना के स्तर पर जो बीमार होता है, शरीर के बीमार न होने पर भी वह बीमार ही है । अध्यात्म के संदर्भ में बीमारी का कारण है-- भाव । जिस व्यक्ति ने भाव को नहीं समझा, उस व्यक्ति ने अध्यात्म को नहीं समझा। जिसने भाव को समझने का प्रयत्न किया है, उसने अध्यात्म के मार्ग पर चरण बढ़ाए हैं, अध्यात्म के हृदय को समझा है । प्रश्न भाव चिकित्सा का
क्रोध, मान, माया और लोभ-ये भाव हैं, आध्यात्मिक हैं। क्रोध भी आध्यात्मिक है और क्षमा भी आध्यात्मिक है। दोनों आध्यात्मिक हैं। आध्यात्मिक का अर्थ है-भीतर में होने वाला। क्रोध और क्षमा-दोनों भाव हैं, भावना या आध्यात्मिकता के स्तर पर जब हम अपने पूरे व्यक्तित्व का विश्लेषण कर लेंगे, पूरे जीवन को समझने का प्रयत्न कर लेंगे तभी सचाई हमारी समझ में आ सकेगी। जब तक हम बाहर ही बाहर रहते हैं, भीतर प्रवेश नहीं करते तब तक सचाई हस्तगत नहीं हो सकती।
भावना के स्तर पर हमें व्यक्तित्व को संवारना है, चिकित्सा करनी है । इसका तात्पर्य यह है कि भावना के स्तर पर जो बीमारियां हैं, उनका इलाज़ करना है । भावचिकित्सा के कुछ सूत्र महत्त्वपूर्ण हैं । आदर्श का चुनाव
भावात्मक बीमारियों को मिटाने का पहला सूत्र है-आदर्श का चुनाव, इष्ट का चुनाव । व्यक्ति वैसा ही बनता है, जैसा उसका आदर्श होता है । व्यक्ति का जैसा उद्देश्य होता है, लक्ष्य होता है, वैसा ही बन जाता है। यदि हम प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का विश्लेषण करते हैं तो हमें यह सहज ज्ञात हो जाता है कि उसके जीवन का निर्माण वैसा ही होगा, जैसा उसका उद्देश्य है । जिसे भोजन इष्ट है, वह पेट बन जाएगा, उसे भोजन के सिवाय कुछ भी नहीं दिखेगा । जिसने पैसे को अपना इष्ट चुना या उद्देश्य बनाया, उसे पैसे के सिवाय कुछ भी नहीं दिख सकेगा। वह लालची बन जाएगा। उसकी प्रतिमा लोभ की प्रतिमा बन जाएगी। जिसने लड़ने-झगड़ने का इष्ट बनाया, वह लड़ने-झगड़ने में रस लेगा, लड़ाकू बन जाएगा। व्यक्ति जिस प्रकार के आदर्श को चुनता है, उसके प्रति समर्पित हो जाता है, उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है, वैसा ही बन जाता है।
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