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चित्त और मन
तो नहीं के बराबर है।
आज के विचार का मुख्य पहल हैं-शरीर, फिर मन और फिर भावना । इसे बदलना जरूरी है । विचार का मुख्य पहलू होना चाहिए भावना फिर मन और फिर शरीर । जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करने वाला तत्त्व है भावना । जैसा भाव वैसा मन और जैसा मन वैसा शरीर। अनेक विकार भाव के कारण उत्पन्न होते हैं। अनेक बीमारियां भाव के कारण होती हैं । भाव मन को प्रभावित करता है, मन बीमार हो जाता है। जब मन बीमार पड़ जाता है तब शरीर बीमार बन जाता है । प्रश्न समाधि का
प्रश्न है-पहले किस पर चोट करें? सामान्यत: शरीर पर चोट करने की बात ही सामने आती है किन्तु गहरे में उतर कर विचार करेंगे तो प्रतीत होगा कि सबसे पहले चोट करनी चाहिए उपाधि पर, भावात्मक व्यथा पर । काम, क्रोध, अहं, ईर्ष्या, माया, लोभ-ये सब भावात्मक दोष हैं। सबसे पहले इन पर चोट होनी चाहिए। इन पर चोट किए बिना भावनाओं को स्वस्थ नहीं रखा जा सकता।
समाधि के सन्दर्भ में कहा गया-जब समाधि की उपलब्धि होती है तब व्याधि नहीं सताती, उपाधि नहीं सताती और आधि नहीं सताती। ये तीनों-व्याधि, उपाधि और आधि जब निःशेष हो जाती है तब समाधि घटित होती है। व्याधि आती है, रोग होता है, समाधि टूट जाती है। सुख और संतोष समाप्त हो जाते हैं। मानसिक उलझन आदमी को इतना बेचैन बना देती है कि आदमी एक क्षण के लिए भी सुख की सांस नहीं ले सकता। आधि की कठिनाई व्याधि से अधिक है। आधि की स्थिति में आदमी पागल बन जाता है। सब कुछ साधन होने पर भी वह बहुत दुःखी बन जाता है। उपाधि की स्थिति आधि से भी ज्यादा भयंकर होती है। उपाधि का अर्थ हैकषाय । उस स्थिति में आदमी आदमी नहीं रहता। वह और कुछ बन जाता है-पिशाच, भूत या राक्षस बन जाता है । उसमें क्रोध, अभिमान और माया का भूत जागता है, कपट उभरता है, लालच जागता है।
व्याधि, आधि और उपाधि-तीनों खतरे हैं। इनकी अवस्थिति में समाधि नहीं आ सकती। एक रोगी मादमी बहुत धनी हो सकता है, कलाकार और वैज्ञानिक हो सकता है । मानसिक और भावात्मक व्यथा से पीड़ित आदमी भी बहुत बड़ा धनी, वज्ञानिक और कलाकार हो सकता है किन्तु व्याधि, आधि और उपाधि से भरा हुआ आदमी समाधिस्थ नहीं हो सकता। समाधिस्थ होने के लिए इन तीनों के पार जाना जरूरी होता है । शरीर निरंतर बीमार रहता है समाधि कैसे होगी ? मन उलझनों से भरा रहता है, समाधि कैसे होगी ? आदमी उपाधि से भरा रहता है, कषाय से भरा रहता है, समाधि
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