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________________ २६४ चित्त और मन है, उस पर रजें चिपट जाती हैं। मैल पसीना है, रजें चिपटती हैं तब वह गाढ़ा बन जाता है । वह हमारे शरीर के छिद्रों को रोक लेता है, रोम-कूपों को बद कर देता है। जिनसे प्राणवायु शरीर के भीतर जाती है, उन्हें ढंक देता है। हमारे मन पर मैल जमता है। मन के भी पसीना आता है । वह मैल बनता है, रजें चिपटती हैं और वह गाढ़ा बन जाता है । मन के छिद्र रुक जाते हैं। जिनके द्वारा हम स्वस्थ विचारों को ले सकते हैं, वे सब रोम-कप बन्द हो जाते हैं । मन की मलिनता प्रश्न हो सकता है ---यह मलिनता कहां से आती है ? यह पसीना कहां से आता है ? पसीने का भी हेतु है। हमारी त्वचा के नीचे स्वेद की ग्रन्थियां है-उन स्वेद-ग्रन्थियों के कारण शरीर में पसीना आता है । मन के नीचे भी कोई स्वेद-ग्रन्थि होनी चाहिए, जिससे मन पसीजे, पसीना आए, मैल जमे और रजें चिपट जाएं। वहां भी स्वेद-ग्रन्थियां हैं। वे हैं-राग और द्वेष । उन प्रन्थियों से कुछ न कुछ चूता रहता है और मन पर मैल जमता रहता है । राग और द्वेष की ग्रंथियों से मूर्छा की तरंगें निकलती हैं, मूर्छा का पसीना चता है, वह मन पर जमता जाता है, मन मलिन होता रहता है। मूढ़ता की निष्पत्ति मूढ़ता की दशा में चिंतन की धारा बदल जाती है। उस अवस्था में चिंतन की धारा का पहला सूत्र होता है -'मैं शरीर हूं'। मूढ़ व्यक्ति शरीर और अपने अस्तित्व को भिन्न नहीं मानता। वह व्यक्ति शरीर और आत्मा को, शरीर और चैतन्य को एक मानता है । इस स्थिति में अहंभाव का विकास होता है । अहंकार का अर्थ है-मैं अमुक हूं। मैं सुखी हूं। मैं दुःखी हूं। मैं बड़ा हूं। मैं छोटा हूं। मैं समृद्ध हूं। मैं गरीब हूं। मैं विद्वान् हूं। मैं मूर्ख हूं-इस प्रकार का मनोभाव बनना । जितनी उपाधियां दुनिया में हो सकती हैं, मनुष्य अपने पीछे लगाए घूम रहा है । 'कम्मुणा उवाही जायई'-कर्म से उपाधि होती है । उपाधि कर्म-जनित है। आधि और व्याधि बीच में है उपाधि । मनुष्य आधि और व्याधि के बीच में जी रहा है इसलिए उसके पीछे उपाधि लगती है । जब कोई आधि नहीं होती, कोई व्याधि नहीं होती तब कोई उपाधि भी नहीं हो सकती। आधि और व्याधि की देन है उपाधि । आदमी उपाधियों का भार ढोता है और अपने को वह मानता है जो कि वह नहीं है। वह जो है, उसका अनुभव नहीं करता। वह जो नहीं है, उसका अनुभव करता है । आत्मा न सुखी है, न दुःखी है, न समृद्ध है, न गरीब है, न छोटा है, न बड़ा है। आत्मा यह सब कुछ भी नहीं है फिर भी मनुष्य अपने आपको सब कुछ मानता चला जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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