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चित्त और मन
तो स्वभाव निर्माण की दृष्टि से यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। शुभ योग की प्रवृत्ति होगी, अशुभ योग की प्रवृत्ति नहीं होगी इसका अर्थ है-पवित्र भावों में हमारा जीवन बीतेगा, हमारे क्षण बीतेंगे, हमारा समय बीतेगा। पवित्र स्वभाव अपने आप बनता रहेगा । हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य, क्रोध,. अभिमान, माया-ये सव अशुभ योग हैं। यदि इन अशुभ योगों में प्रवृत्ति होगी तो स्वभाव भी वैसा ही बनता चला जाएगा। इसलिए सूत्र दिया गया कि अशुभ योग की प्रवृत्ति न हो, शुभ योग की प्रवृत्ति हो । शुभ योग की प्रवृत्ति से भाव पवित्र बनते हैं और भावों का पवित्रता में ही इंद्रिय और मन की पवित्रता का रहस्य छिपा हुआ है ।
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