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________________ इन्द्रिय मन : भाव २६१ संयोग होता है तब संवेदन जन्म लेता है । संवेदन संवेदन तक सीमित रहे तो कोई दुःख नहीं होता किन्तु संवेदन के साथ जब प्रियता या अप्रियता जुड़ती है तब दुःख का चक्र बनता है। उससे बाहर निकलना हर किसी के लिए सरल नहीं होता । पदार्थ-भोग से अतृप्ति होती है । अतृप्ति लोभ को पैदा करती है । 'प्रियता से अतृप्ति और अतृप्ति से लोभ । जब मन में लोभ जागता है तब चोरी की भावना जागती है । जब चोरी की वृत्ति उभरती है तब मायामृषा -- कपट और झूठ की वृत्तियां जागृत होती हैं । समाधान सूत्र प्रश्न आता है कि आदमी प्रिय-अप्रिय संवेदनों को कैसे कम करे ? जीवन के ये दो तत्त्व हैं—प्रियता और अप्रियता । इनसे प्रत्येक व्यक्ति संदानित है । इनसे छुटकारा पाना सहज-सरल नहीं है । पर ये निरुपाय नहीं हैं । जो व्यक्ति प्रिय अप्रिय संवेदनों से मुक्त होना चाहता है वह ज्योतिकेन्द्र पर ध्यान करे । यह एक अनुभूत और महत्त्वपूर्ण प्रयोग है । जिस व्यक्ति ने ज्योतिकेन्द्र पर श्वेत रंग या अन्य निर्दिष्ट रंगों का ध्यान किया है, उस व्यक्ति ने क्रोध, अहंकार, द्वेष और राग से छुटकारा पाया है । इस प्रयोग से कषाय-विजय होती है । प्राण- केन्द्र पर ध्यान करने से प्रमाद आश्रव पर विजय प्राप्त होती है । प्रमाद अनुत्साह पैदा करता है, चेतना को अलस और मन्थर बनाता है, निष्क्रिय बनाता है । इन सबसे मुक्ति पाने का साधन है प्राण केन्द्र पर ध्यान करना । जो व्यक्ति प्राण- केन्द्रको साध लेता है, वह प्रमाद से छुट्टी पा लेता है । उसके मन में अरति नहीं होती, आर्त भावना कम हो जाती है । उसका मन विपदाओं से मुक्त हो जाता है । पदार्थनिष्ठ रस समाप्त होने लग जाता है । वही रस बचता है, जो जीवन के लिए अनिवार्य होता है । स्वभाव निर्माण की प्रक्रिया सत्, चित् और आनन्द —— ये तीन बहुत प्रचलित शब्द हैं। जो सत् में जीता है, चित् और आनन्द में जीता है, उनकी अनुभूति रखता है, बार बार स्मृति रखता है, वह अपने ऐसे स्वभाव का निर्माण करेगा, जिस स्वभाव से सत् निकलेगा, चित् और आनन्द निकलेगा । उसमें से असत्, अचित् और दुःख नहीं निकलेगा और दूसरों के लिए भी वह खतरनाक नहीं बनेगा । I एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया गया था पवित्र स्मृति का - 'शिवसंकल्पमस्तु मे मनः' मेरा मन पवित्र संकल्प वाला बने । मेरा मन निरन्तर पवित्र बना रहे । जैन साहित्य का एक पारिभाषिक शब्द है- - ज्यादा से ज्यादा शुभ योग बना रहे । यह बहुत प्रचलित शब्द है कि अशुभ योग की प्रवृत्ति न हो, शुभ योग की प्रवृत्ति हो । मनोविज्ञान के सन्दर्भ में यदि इस सूत्र की व्याख्या करें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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