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चित्त और मन
जोते हैं और इन्द्रियों की चेतना के स्तर पर जीते हैं। जब तक इन्द्रिय-चेतना और मानसिक चेतना का सम्बन्ध जुड़ा रहेगा तब तक हम मूल स्रोत तक नहीं पहुंच पाएंगे । सूक्ष्म तक पहुंचने के लिए इन्द्रिय और मन के सम्बन्ध का विच्छेद करना होगा । इन्द्रियों और मन का सम्बन्ध विच्छिन्न होगा तो सूक्ष्म लोक की यात्रा शुरू हो जाएगी। हमने स्थूल जगत् को सब कुछ मान रखा है और उसी के सहारे चल रहे हैं । हमने जितनी दुनिया को देखा है, दुनिया उतनी ही नहीं है। हमारी इन्द्रियों के द्वारा उपलब्ध होने वाली दुनिया तो बहुत छोटी है और इन्द्रियों के द्वारा अगम्य दुनिया विराट् है । बाहर से भोतर : भीतर से बाहर
समाधान के लिए हम दोनों ओर से चलें, बाहर से भी चलें और भीतर से भी चलें । बाहर से चलें, तब सबसे पहले हाथों का संयम करें, पैरों का संयम करें, वाणी का संयम करें, इन्द्रियों का संयम करें। जब हम भीतर से चलें तब उस मुद्रा में बैठ जाएं, जिससे मन की दिशा बदल जाए, प्राण की धारा बदल जाए और मन प्राण की सारी ऊर्जा भीतर की ओर बहने लग जाए। यह बाहर से भीतर की ओर गति है। एक गति है-भीतर से बाहर की ओर । यदि मन भीतर की ओर रम गया, अस्तित्व की कोई झलक मिल गयी, अस्तित्व में मन रम गया तो शरीर के समस्त अवयव अपने-आप शांत हो जाएंगे। प्रयत्न करने की कोई अपेक्षा नहीं होगी, चंचलता अपने-आप मिट जाएगी। उस समय साधक 'सुसमाहितात्मा' बन जाएगा। वृत्ति और चंचलता
___ मन चंचल है इसलिए इन्द्रियां चंचल हैं। हमारी वृत्तियां चंचल हैं इसलिए मन चंचल है । चंचलता के हेतु इन्द्रियां और मन नहीं हैं, वे तो चंचलता का भोग करती हैं। चंचलता के मूल हेतु वृत्तियां हैं। इसलिए जो व्यक्ति इन्द्रिय और मन की निर्मलता और उनकी चचलता के समापन का इच्छुक है उसके लिए यह आवश्यक है कि वह वृत्तियों के संशोधन का प्रयल करे।
प्रश्न होता है-वृत्तियां क्या हैं और उनके संशोधन की प्रक्रिया क्या है ? मनुष्य के जीवन-परिचालन में जिसका सक्रिय योग होता है, उसे वृत्ति कहा जाता है। वर्तमान की क्रिया अतीत में वृत्ति का रूप ले लेती है। मनुष्य में अनेक वृत्तियां हैं
१. बुभुक्षा-खाने की इच्छा होती है । २. शरीर-धारण की इच्छा होती है। ३. ऐन्द्रियिक आसक्ति होती है।
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