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________________ इन्द्रिय : मन : भाव २८९ ४. श्वास लेने का संस्कार होता है । ५. बोलने की इच्छा होती है। ४. चिंतन का संस्कार होता है। ये जीवन-धारण की मौलिक वृत्तियां हैं। वत्ति : पोषक तत्त्व वत्ति के पोषक तत्त्व दो हैं-राग और द्वेष । रागात्मक भावना के द्वारा मनुष्य प्रियता या अनुकूलता की अनुभूति करता है और द्वेषात्मक भावना के द्वारा मनुष्य अप्रियता या प्रतिकूलता की अनुभूति करता है। रागात्मक भाव माया और लोभ के रूप में प्रकट होता है। द्वेषात्मक भाव क्रोध और अभिमान के रूप में प्रकट होता है। ये वृत्तियों को अपने रंग में रंग देते हैं इसलिए इन्हें कषाय कहा गया है। इन भावों को पुष्टि देने वाले कुछ सहायक भाव हैं। जैसे-हास्य, रति-अरति, भय, शोक, घृणा, कामवासना। इन काषायिक भावों के द्वारा मनुष्य में अज्ञान, संशय, विपर्यय, मोह, मावरण आदि घटित होते हैं। महर्षि पतंजलि ने प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति को वृत्ति माना है । वृत्तियों का शोधन तपोयोग से होता है । जैसे पानी, हवा और धूप के अभाव में अंकुरित बीज मुरझा जाता है वैसे ही पोषक सामग्री के अभाव में अजित संस्कार निर्वीर्य बन जाते हैं। जैसे गन्दा जल शोधक द्रव्यों के प्रयोग से स्वच्छ हो जाता है वैसे ही तपोयोग के द्वारा वृत्तियों के दोष विलीन हो जाते मन से जुड़े हुए हैं संवेदन-युगल दर्शन के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण चर्चा हो रही है। उसका आधार है-अस्तित्ववादी दृष्टिकोण और उपयोगितावादी दृष्टिकोण । जंगल में फल खिलता है । उसका अस्तित्व निर्विवाद है पर उसकी उपयोगिता निर्विवाद नहीं है । अस्तित्ववादी दृष्टिकोण से हम कहेंगे-जंगली फूल का अस्तित्व है पर उसकी उपयोगिता नहीं है। वह जंगल में खिलता है और जंगल में ही मुरझा जाता है, नष्ट हो जाता है । अपने-आप खिला और अपने आप समाप्त हो गया। नगर के उद्यान में खिलने वाले फूल. का अस्तित्व भी है और उपयोगिता भी है । उसका अपना अस्तित्व है, अपनी उपयोगिता है । नगर के फूल का आदमी उपयोग करता है। वह उसे अच्छाबुरा, प्रिय-अप्रिय, मनोज्ञ-अमनोज्ञ आदि बताता है। ये सारे उपयोगिता के बिन्दु हैं। आंख फूल को देखती है, घ्राण उसके गन्ध का ग्रहण करती है और जीभ उसके रस का आस्वादन करती है किन्तु इन इन्द्रियों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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