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________________ इन्द्रिय : मन : भाव २८५. चला गया। उसके सामने बार-बार वही बात आती है, वही चित्र आता है तब उसमें निराशा छा जाती है । एक व्यक्ति नहीं, न जाने कितने व्यक्ति इस प्रकार की जटिल समस्याओं से आक्रांत रहते हैं । यदि उनकी सारी समस्याओं का आकलन किया जाए तो न जाने कितने महाग्रन्थ तैयार हो जाएं । धर्म का पहला पाठ जिसका मन शिक्षित नहीं है, वह धार्मिक नहीं है । धार्मिक वही है, जिसका मन शिक्षित है । व्यक्ति का मन शिक्षित नहीं है और वह धार्मिक है, यह विरोधाभास या आत्मभ्रान्ति है । धर्म के विद्यालय का पहला पाठ है— मन को शिक्षित करना । यह सरल होते हुए भी कठिन हो रहा है। माला फेरते - फेरते मनके घिस गए और अंगुलियां भी घिस गई, फिर भी यह प्रश्न समाहित नहीं हुआ कि मन स्थिर कैसे हो ? जो प्रश्न पचास वर्ष पहले था, आज भी उसी रूप में खड़ा है । प्रक्रिया की ओर ध्यान न देने पर आज भी यह प्रश्न समाहित नहीं होगा । धर्म की पहली सीढ़ी है— मन पर विजय पाना । केशी ने गौतम से पूछा- शत्रुओं को आपने कैसे जीता ? अपने आपको कैसे जीता ? गौतम ने कहा # 'एगे जिया जिया पंच, पंच जिए जिया दस । दसहा उ जिणित्ताणं, सब्वसत्तू जिणामह ॥' 'मन को जीता और चार कषायों पर विजय पा ली। इन पांचों को जीतने से पांच इन्द्रियां भी विजित हो गई । इस प्रक्रिया से सारे शत्रुओं पर मैंने विजय पा अपने आप पर विजय पा ली ।' चेतना का एक द्वार है मन जो मन को जीतना नहीं जानता, वह कषायों और इन्द्रियों पर विजय नहीं पा सकता । जो कषायों और इन्द्रियों को नहीं जीतता, वह धार्मिक नहीं हो सकता । मन हमारी चेतना का एक द्वार है । चेतना अनन्त है। उसका एक द्वार मन है । उसे चंचल मानना हमारी भूल है । उसमें चंचलता का आरोपण किया गया है। युद्ध में लड़ने वाले सैनिक होते हैं। जीत होने पर विजय क श्रेय सेनापति को मिलता है और पराजय होने पर अपयश भी उसी का होत है । आरोपण की प्रक्रिया में एक का श्रेय अश्रेय दूसरे को मिलता है। भलाई और बुराई दोनों का आरोपण किया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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