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________________ इन्द्रिय : मन : भाव २८३ में कई बार यह साचना चाहिए कि जननेन्द्रिय में केन्द्रित प्राण-शक्ति सारे स्नायु मण्डल में प्रवाहित होकर अंग-प्रत्यंग को पुष्ट कर रही है। थोड़े समय में ही इस मानसिक सूचना से तन और मन नये चैतन्य से स्फूर्त एवं प्रफुल्ल हो उठेगे। इन साधनों के सिवा शास्त्रों का अध्ययन, मनन, चिन्तन, व्युत्सर्ग आदि साधन भी मन को एकाग्र करने में सहायक होते हैं। मेरा विश्वास है कि ब्रह्मचर्य के लिए केवल मानसिक चिन्तन ही पर्याप्त नहीं है, दैहिक प्रश्नों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। भोजन-सम्बन्धी विवेक और मल-शुद्धि का ज्ञान भी कम महत्त्व का नहीं है। यदि उनकी उपेक्षा की गई तो मानसिक चिन्तन अकेला पड़ जायेगा। __ मानसिक पवित्रता, प्रतिभा की सूक्ष्मता, धैर्य और मानसिक विकास के लिए ब्रह्मचर्य आवश्यक है और उसकी सिद्धि के लिए उक्त साधनों का अभ्यास आवश्यक है। निमित्त है इन्द्रिय ' मानसिक चंचलता कुछ निमित्तों से होती है। उनमें पहला निमित्त इन्द्रियां हैं । वे जब वाह्य जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित करती हैं तब मन को चंचल बनाती हैं इसीलिए साधना की भूमिका में उनको अन्र्मुखी करने का प्रयत्न किया जाता है । उनके अन्तर्मुख होने का अर्थ है-विषयों के साथ सम्पर्क स्थापित न करना किन्तु इस जगत् में यह संभव है कि हमारी इन्द्रियां विषयों से सर्वथा असम्पृक्त रह सके ? इस कोलाहलमय जगत में क्या यह संभव है कि कान हो और शब्द सुनाई न दे ? इस रूपमय जगत् में क्या यह संभव है कि आंख हो और रूप को न देखे ? वायु के साथ प्रवाहित होकर आने वाली गंध को कैसे रोका जा सकता है ? रस और स्पर्श के सम्पर्क को भी सर्वथा नहीं रोका जा सकता। इस स्थिति में हम विषयों से असम्पृक्त एक सीमा में ही रह सकते हैं। क्या इस स्थिति में हम मानसिक चंचलता को रोकने में सफल हो सकते हैं ? नहीं हो सकते । किन्तु मनुष्य का शक्तिशाली मस्तिष्क नहीं को हां में बदल देता है। उसने एक विकल्प खोज निकाला कि मन की स्थिरता का अभ्यास करने वाला व्यक्ति विषयों के सम्पर्क से जितना बच सके, उतना बचे और न बच सकने की स्थिति में वह उनके प्रति अनासक्त रहे । विषयों के असम्पर्क और अनिवार्य रूपेण प्राप्त विषयों के प्रति अनासक्ति-ये दोनों मिलकर इन्द्रिय प्रतिसंलीनता की प्रक्रिया को पूरा करते हैं। आवश्यक है आसक्ति से बचना अभ्यास की अपरिपक्व दशा में विषयों से बचाव करना बहुत उपयोगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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