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चित्त और मन बदल जाता है, विषयों के प्रति उसका आकर्षण समाप्त हो जाता है। यह वह स्थिति है, जिसके लिए मनुष्य साधना के पथ पर चलता है।
इन्द्रियों के साथ वृत्तियों का सम्बन्ध नहीं होता तब तक इन्द्रिय और विषय में ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध होता है। पानी अपने आप में स्वच्छ है। उसमें गन्दगी आ मिलती है तब वह मैला हो जाता है । इन्द्रिय और मन भी अपने आप में स्वच्छ हैं । उनमें वत्तियों की गन्दगी आ जाती है तब वे मलिन बन जाते हैं । हम तब तक इन्द्रिय और मन की गन्दगी का शोधन या समापन नहीं कर सकते जब तक वृत्तियों का शोधन या समापन नहीं कर लेते।
इन्द्रियां चंचल होती हैं पर वह उनकी स्वतंत्र प्रवृत्ति नहीं है। मन से प्रेरित होकर ही वे चंचल बनती हैं । मन जब स्थिर और शांत होता है तब वे अपने-आप स्थिर और शान्त हो जाती हैं । मन अन्तर्मुखी बनता है, तब इन्द्रियां अन्तर्मुखी हो जाती हैं । महर्षि पतंजलि ने इसी आशय से लिखा है-'स्वविषयसम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः'। अपने विषयों के असंप्रयोग में चित्त के स्वरूप का अनुकरण जैसा करना इन्द्रियों का प्रत्याहार कहलाता है। प्रत्याहार के स्थान पर जैन आगमों में प्रतिसंलीनता का उल्लेख है। औपपातिक सूत्र में इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के पांच प्रकार बतलाए गए हैं।
___इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के दो मार्ग हैं--विषय-प्रचार का निरोध और राग-द्वेष का निग्रह । आंखों से न देखें, यह विषय-प्रचार का निरोध है। विषय के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाए वहां राग-द्वेष न करना, राग-द्वेष का निग्रह है। प्रतिसंलीनता अर्थ
प्रतिसंलीनता का अर्थ है-अपने आप में लीन होना। इन्द्रियां सहजतया बाहर दौड़ती हैं, उन्हें अन्तर्मुखी बनाना प्रतिसंलीनता है। उसकी प्रक्रिया यह है कोई आकार सामने आए तो उसकी उपेक्षा कर भीतर में देखा जाए वैसे ही भीतर में सुना जाए, सूंघा जाए, स्वाद लिया जाए और स्पर्श किया जाए । प्रतिसंलीनता के लिए कुंभक की आवश्यकता होती है। कुंभक का अर्थ है-श्वास को भीतर या बाहर जहां का तहां रोक देना। प्राण, मन और बिन्दु (वीर्य) का परस्पर गहरा सम्बन्ध है । आवश्यक है ब्रह्मचर्य
हेलेना राइट ने इसके लिए बड़ा उपयोगी मार्ग बतलाया है-आत्म-.. विकास के लिए कोई एक कार्य अपना लेना चाहिए और एकाग्रचित्त से दिन
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