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इन्द्रिय : मन : भाव
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तर्क की शक्ति नहीं होती। मन में ईहापोह शक्ति होती है। इन्द्रिय मति और श्रुत-दोनों में वार्तमानिक बोध करती है, पाश्ववर्ती विषय को जानती है। मन मति-ज्ञान में भी ईहा के अन्वय-व्यतिरेकी धर्मों का परामर्श करते समय
कालिक बन जाता है और श्रुत में त्रैकालिक होता ही है । प्राह्य ग्राहक भाव
साधना के लिए इन्द्रियों और मन की क्रिया और प्रक्रिया का ज्ञान आवश्यक है। बाह्य जगत के साथ हमारा संपर्क इन्द्रियों और मन के माध्यम से होता है । दृश्य जगत् को हम आंखों से देखते हैं, श्रव्य जगत् को हम कानों से सुनते हैं, गन्धवान् जगत् को हम संघते हैं, रसनीय जगत् का हम रस लेते हैं और स्पृश्य जगत् का हम स्पर्श करते हैं। रूप, शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श का अस्तित्व इन्द्रियों के लिए नहीं है फिर भी उनमें ग्राह्य-ग्राहक भाव है। इसलिए इन्द्रियां ग्राहक हैं और विषय उनके द्वारा गृहीत होते हैं। इन्द्रिय
और विषय में ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध है । वह साधना का विषय नहीं है 'किन्तु एक मनुष्य दृश्य को देखता है और उसके मन में राग या द्वेष की ऊमि उठती है, यह स्थिति साधना की परिधि में आती है। इन्द्रियों का प्रयोग करना और उसमें राग या द्वेष की ऊर्मियों को उठने न देना, इसी का नाम है साधना । यह तभी सम्भव हो सकता है जब मनुष्य को शुद्ध चैतन्य की भूमिका का अनुभव प्राप्त हो । साधना का उद्देश्य
जानने और राग या द्वेष की ऊर्मि उत्पन्न होने में निश्चित सम्बन्ध नहीं है। किन्तु जहां साधना नहीं होती, चैतन्य की केवल चैतन्य के रूप में अनुभूति या स्वीकृति नहीं होती, वहां ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध अनुरागी और प्रेम या द्वेष्टा और द्वेष्य के रूप में बदल जाता है । ज्ञान के उत्तरकाल में होने वाले राग या द्वेष को निर्वीर्य करना ही साधना का उद्देश्य है।
क्या यह संभव है, कोई व्यक्ति सुस्वादु पदार्थ खाए और उसके मन में राग उत्पन्न न हो ? क्या यह संभव है, कोई आदमी बासी अन्न खाए और उसके मन में ग्लानि या द्वेष उत्पन्न न हो ? साधारण आदमी के लिए यह संभव नहीं है। यह असंभव नहीं है किन्तु संभव उसी के लिए है जिसने ऐसी स्थिति के निर्माण के लिए प्रयत्न किया है। इन्द्रिय, विषय और वृत्ति
__जिस व्यक्ति के मन में इन्द्रिय-विषयों के प्रति आकर्षण है, वह उन्हें प्राप्त कर राग या द्वेष से मुक्त नहीं रह सकता। जिसके आकर्षण का प्रवाह
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