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इन्द्रिय मन : भाव
इन्द्रिय भौर मन
चैतन्य की दो भूमिकाएं हैं-विकसित और भविकसित । विकास का सर्वाधिक निम्नस्तर एकेन्द्रिय में होता है उसके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय का विकास होता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि जीवों के चैतन्य का क्रमिक विकास होता है । द्वीन्द्रिय को दो इन्द्रिय स्पर्श और रसन का ज्ञान प्राप्त होता है। त्रीन्द्रिय के घ्राण, चतुरिन्द्रिय के चक्षु और पंचेन्द्रिय के श्रोत्र विकसित हो जाते हैं । चैतन्य का दूसरा स्तर है-मानसिक विकास । वह केवल पंचेन्द्रिय जीवों को ही प्राप्त होता है।
मनुष्य पंचेन्द्रिय है और मानसिक विकास भी उसे प्राप्त है। यद्यपि इन्द्रिय और मन-दोनों चैतन्य के विकास हैं फिर भी दोनों की विकास-मात्रा में बहुत तारतम्य है । इन्द्रियां केवल वर्तमान को ही जानती हैं। मन भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों को जानता है । इन्द्रियों में आलोचनात्मक ज्ञान की शक्ति नहीं है। मन में आलोचना की क्षमता है। वह इन्द्रियों द्वारा गृहीत विषयों का ज्ञान करता है और स्वतंत्र चिंतन भी।
___ संज्ञान दो प्रकार के होते हैं तात्कालिक और कालिक । तात्कालिक संज्ञान चींटी जैसे क्षुद्र प्राणियों में भी होता है । वे इष्ट की प्राप्ति के लिए प्रवृत्त और अनिष्ट से बचने के लिए निवृत्त होते हैं किन्तु वे भूत और भविष्य का संकलनात्मक संज्ञान नहीं कर सकते। उनमें स्मृति और कल्पना का विकास नहीं होता। मानसिक अवग्रह
। इन्द्रियां जैसे मति-ज्ञान की निमित्त हैं, वैसे श्रुत-ज्ञान की भी हैं। मन की भी यही बात है वह भी दोनों का निमित्त है । किन्तु श्रुत-शब्द द्वारा प्राह्य वस्तु, केवल मन का ही विषय है, इन्द्रियों का नहीं। शब्द-संस्पर्श के बिना प्रत्यक्ष वस्तु का ग्रहण इन्द्रिय और मन-दोनों के द्वारा होता है । स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्दात्मक वस्तु का ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा होता है, उनकी विशेष अवस्थाओं और बुद्धिजन्य काल्पनिक वृत्तों का तथा पदार्थ के उपयोग का ज्ञान मन के द्वारा होता हैं। इस प्राथमिक ग्रहण-अवग्रह में सामान्य रूप से वस्तु-पर्यायों का ज्ञान होता है। इसमें आगे-पीछे का अनुसंधान, शब्द और अर्थ का सम्बन्ध, विशेष विकल्प आदि नहीं होते।
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