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चित्त और मन
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जीवन जीना होगा या मानसिक उलझनों को समाप्त कर मानसिक शांति का जीवन प्राप्त करना होगा। दोनों के रास्ते भिन्न-भिन्न हैं । यदि हमें उलझनों का रास्ता चुनना है तो वह तैयार है और यदि हमें शांति का रास्ता चुनना है तो वह भी उपलब्ध है ।
चित्त का संतुलन
अनेक व्यक्ति अलाभ की स्थिति में भयंकर वेदना का अनुभव करते हैं । अलाभ में मानसिक स्थिति अधोगामी हो जाती है । व्यापार में घाटा लगा, व्यापारी आत्महत्या कर डालता है । परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुआ, विद्यार्थी आत्महत्या करने या घर से पलायन करने की बात सोच लेता है । पदावनति हुई और बड़ा अफसर भी व्याकुल होकर प्राण त्याग के लिए तत्पर हो जाता है | आत्महत्या है जानबूझकर मरना । आदमी यह मृत्यु इसलिए करता है कि उसने अपने मन को लाभ और अलाभ से जोड़ रखा है । कभी-कभी लाभ में भी वह मर जाता है । अति लाभ होने पर व्यक्ति उस खुशी को सहन नहीं कर पाता और मर जाता है। हमारे मन की स्थिति इस द्वंद्व के साथ ऐसी जुड़ी हुई है और उसने चित्त की विषमता का निर्माण कर दिया है। चित्त की विषमता मूल व्याधि है । यह जितनी सताती है उतनी न आर्थिक विषमता सताती है और न सामाजिक विषमता सताती है ।
व्यक्ति की मनःस्थिति,
हमने एक ऐसी मानसिक स्थिति का निर्माण कर रखा है कि सुख की स्थिति आने पर हम फूल जाते हैं और दुःख की स्थिति में मुरझा जाते हैं । इसका तात्पर्य है व्यक्ति की चेतना का कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं है । सुख के साथ अहं की ग्रंथि और दुःख के साथ हीनता की ग्रंथि जुड़ जाती है । दुःखी आदमी हीनभावना से ग्रस्त होता है, निराशा का जीवन जीने लगता है । वह सोचता है, यह संसार मेरे जीने योग्य नहीं है । जीवन में मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है । सारा जीवन बेकार है ।
सुख के साथ अहं की ग्रंथि घुलती है, आदमी स्वयं को सम्राट् मानकर जीता है । यह अहं भावना उसमें अनेक कुंठाएं पैदा करती है ।
प्रश्न है कि चेतना का परिवर्तन कैसे होता है ? जहां जीवन और मृत्यु की सीमा समाप्त हो जाती है वहां समता और संयम की सीमा प्रारम्भ होती है । उस सीमा में चेतना बदल जाती है, चित्त बदल जाता है । ध्यान का उद्देश्य
ध्यान का मूल उद्देश्य है- राग और द्वेष को कम करना । ध्यान का संकल्प है - 'मैं चित्तशुद्धि के लिए ध्यान का प्रयोग कर रहा हूं।' चित्तशुद्धि का अर्थ है - कषायों को शांत करना, राग-द्वेष को शांत करना, राग-द्वेष की
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