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चित्त समाधि के सूत्र
मेव विज्ञान का महत्त्व
शरीर और चेतना भिन्न हैं- यह हमने सुना या पढ़ा। हमें बोध हो गया कि शरीर अचेतन है, आत्मा चेतन है इसलिए वे दोनों भिन्न हैं । यह बोध केवल श्रुति-बोध है । इस बोध को हम साधना का आदि बिन्दु बना सकते हैं किन्तु इसे निष्पत्ति नहीं मान सकते । इस श्रुति-बोध को स्वयं का बोध बनाने के लिए दो प्रयोग किए जाते हैं-- एक तप का और दूसरा चरित्र का । हम कम खाते हैं या कुछ दिनों तक नहीं खाते । शरीर के लिए खाना जरूरी है और हम नहीं खाकर उसके नियम का अतिक्रमण करते हैं । उस अतिक्रमण का शरीर विरोध करता है । उस विरोध के काल में यदि हम भेद- ज्ञान का अनुभव कर चेतना को मुख्यता देते हैं तो भेद - विज्ञान अभ्यास के स्तर पर आ जाता है । हम आसन साधते हैं । शरीर की मांग नहीं है कि हम दो या तीन घंटा एक आसन में बैठे रहें । हम ध्यान करते हैं । बाह्य वातावरण से हट जाते हैं और ज्ञात विषयों की विस्मृति हो जाती है । हम आने वाली हर कठिनाई को हंसते-हंसने झेल लेते हैं । ये सब तप और चारित्र के प्रयोग भेदविज्ञान के प्रयोग हैं । इनके द्वारा हमारा भेद-विज्ञान पुष्ट होता है । हम इस बिन्दु पर पहुंच जाते हैं कि जो अप्रिय लग रहा है, कष्ट हो रहा है, वह सब दैहिक संस्कार के कारण हो रहा है । चेतना के धरातल पर कोई अप्रिय नहीं है, कोई कष्ट नहीं है । यह अनुभूति पुष्ट होकर चित्त को चंचल बनाने वाली - सभी बाधाओं को विलीन कर देती है और चित्त समाहित हो जाता है ।
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चित्त की प्रगाढ़ता
जब चित्त की शक्ति केन्द्रित हो जाती है, प्रगाढ़ बन जाती है, तरलता मिट जाती है तब बाहर के मिश्रण उसमें विकृति पैदा नहीं कर सकते । पानी तरल है । उसमें प्रत्येक चीज मिश्रित हो जाती है, घुल जाती है । पानी को बर्फ बना दिया जाए, उसमें कुछ भी नहीं घुल पाएगा। बर्फ गन्दी नहीं बनती । हमारे चित्त की भी यही स्थिति है । जब तक वह तरल होता है, चंचल होता है तब तक वह बाहर के प्रभाव से प्रभावित होता जाता है, चेतना गंदली बनती जाती है । जब चित्त प्रगाढ़ बन जाता है, बर्फ जैसा ठोस बन जाता है। तब वह बाहर के प्रभाव से अप्रभावित रहता है । ऐसी स्थिति में उस चित्त वाले व्यक्ति को गाली दो, पीटो, बुरा भला कहो, वह उनसे प्रभावित नहीं होगा । वे बातें आएंगी, स्पर्श कर नीचे लुढक जाएंगी। उनका कोई असर ही नहीं होगा । एक ओर हम अपने चित्त को चंचल या तरल रखना चाहते हैं, दूसरी ओर मानसिक समस्याओं और उलझनों से बचना भी चाहते । ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। दो घोड़ों पर एक साथ सवारी नहीं की जा सकती । हमें एक चुनाव करना होगा । या तो हमें मानसिक उलझनों का
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