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चित्त और मन
में अनेक अभ्यासों और प्रयोगों के द्वारा प्राप्त की जा सकती है इसलिए उसे कई भागों में विभक्त भी किया जा सकता है ।
समाधि का एक प्रयोग है समत्व । लाभ-अलाभ, सुख-दुःख आदि द्वंद्वों में सम (उदासीन या तटस्थ) रहने का अभ्यास करते-करते राग और द्वेष के विकल्प शांत हो जाते हैं---चित्त समाहित हो जाता है । चित्त असमाधि का हेतु
चित्त की असमाधि का हेतु है-अभिमान । मनुष्य जितना परिग्रही होता है, उतना ही अभिमानी होता है। परिग्रह का अर्थ है-मूर्छा, आसक्ति । जो वैभव, सत्ता आदि पदार्थों में मूच्छित होता है और यह मानता है मेरे पास वैभव है, अधिकार है, यह है, वह है। ऐसा मानने वाला अभिमान के विकल्प से भरा रहता है। समाधि चाहने वाला परिग्रह को छोड़ता है, मूर्छा और आसक्ति का परित्याग करता है। वह इस भावना का अभ्यास करता है कि मेरा कुछ भी नहीं है। इस अभ्यास से उसके अभिमान विकल्प का विलय हो जाता है। उसे चित्त-समाधि प्राप्त हो जाती है।
जिससे चित्त चंचल होता है, वह ज्ञान समाधि का हेतु नहीं होता। समाधि चित्त की स्थिरता में ही निष्पन्न होती है। विकल्प और अशान्ति दोनों साथ-साथ जन्म लेते हैं। जैसे-जैसे विकल्प बढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे अशांति बढ़ती जाती है। विकल्प को क्षीण करने का उपाय है-चित्त की एकाग्रता । जैसे-जैसे अन्तरात्मा का बोध जागृत होता है वैसे-वैसे हमारी चेतना बाह्य वस्तुओं से विरत हो जाती है, चित्त एकाग्र हो जाता है। हम सूचनात्मक ज्ञान का संकलन करें या न करें, यह यहां प्रस्तुत नहीं है। हम अपने अन्तश्चैतन्य को जागृत करें और उससे जो श्रुत (ज्ञान) की धारा प्रवाहित हो, उसका उपयोग करें। चित्त अपने आप समाहित होगा। चेतना और शरीर
चेतना और शरीर-ये दोनों परस्पर मिले हुए हैं। स्थूल शरीर बदलता रहता है किन्तु सूक्ष्म शरीर और चेतना-ये दोनों धाराप्रवाह रूप में जड़े रहते हैं। चेतना के द्वारा शरीर को ज्ञान का आलोक और शक्ति प्राप्त होती है । शरीर के द्वारा चेतना को अभिव्यक्ति मिलती है और शक्ति के प्रयोग का क्षेत्र मिलता है। दोनों पारस्परिक सहयोग के कारण अभिन्न जैसे प्रतीत होते हैं। यह अभेद बोध ही चेतना के शरीर निरपेक्ष विकास में अवरोध पैदा करता है। इस अभेद बोध की परिस्थिति में राग और द्वेष पनपते हैं । उनके संस्कार चित्त को चंचल बनाए रहते हैं । उस चंचलता को मिटाने का एक . महत्त्वपूर्ण सूत्र है-भेद-विज्ञान, चेतना और शरीर में भिन्नता का बोध ।
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