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________________ चित्त समाधि के सूत्र २७३ चित्त का समाधान या चित्त का सन्तुलन । धारणा, ध्यान और समाधि-ये तीनों एक ही तत्त्व की तीन अवस्थाएं हैं। धारणा का प्रकर्ष ध्यान और ध्यान का प्रकर्ष समाधि है। धारणा चित्त की एकाग्रता से शुरू होती है, ध्यान में एकाग्रता परिपुष्ट हो जाती है और समाधि में वह निरोध की अवस्था में बदल जाती है। चित्त की भूमिकाएं चित्त की एक वृत्ति के शांत होने पर दूसरी वृत्ति उसी के अनुरूप उठे और उस प्रकार की अनुरूप वृत्तियों का प्रवाह चलता रहे, उसका नाम चित्त की एकाग्रता है । चित्त की मूढ़ अवस्था में राग और द्वेष का उदय प्रबल होता है इसलिए उसमें संतुलित एकाग्रता नहीं होती । उस अवस्था में असंतुलित एकाग्रता आर्त और रौद्र ध्यान की एकाग्रता हो सकती है किन्तु आत्मिक विकास के लिए उसका कोई उपयोग नहीं होता । वह दोषपूर्ण एकाग्रता है, संतुलित चित्त की एकाग्रता में बाधक है। विक्षिप्त और यातायात चित्त की एकाग्रता सामयिक होती है। जिस समय चित्त में स्थिरता प्रकट होती है, उस समय अस्थिरता तिरोहित हो जाती है। कुछ समय बाद अस्थिरता आती है और स्थिरता चली जाती है। इन दोनों भूमिकाओं के साधक कभी अपने को समाधि अवस्था में अनुभव करते हैं और कभी असमाधि अवस्था में । उनका आचरण बार-बार बदलता रहता है। समाधि : चैतन्य का अनुभव श्लिष्ट और सुलीन चित्त की इन दो भूमिकाओं में एकाग्रता का मूल सुदृढ़ होता है । श्लिष्ट चित्त की एकाग्रता को धारणा और सुलीन चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहा जा सकता है। इन दोनों को एक शब्द में धर्म्य. ध्यान कहा जा सकता है। चित्त की छठी भूमिका निरुद्ध है। इसे शुक्लध्यान कहा जा सकता है। शुक्ल ध्यान को उत्तम समाधि, धर्म्यध्यान को मध्यम समाधि और धारणा को प्राथमिक समाधि कहा जा सकता है। धर्मध्यान की एकाग्रता चिरस्थायी होती है इसलिए उससे मन समाहित हो जाता है, वशीभूत हो जाता है। उसे बाधाएं परास्त नहीं कर सकतीं। शुक्लध्यान में चित्त का चिरस्थायी निरोध हो जाता है । उससे वृत्तियां क्षीण होती हैं । धारणा में चित्त संतुलित होता है, ध्यान में समाहित और समाधि में केवल चैतन्य का अनुभव शेष रहता है । समत्व समाधि के ये प्रकार अभ्यास की दृष्टि से किए गए हैं। रागात्मक और द्वेषात्मक विकल्प से शून्य चित्त की अवस्था में समाधि उत्पन्न होती है । इस दृष्टि से समाधि का कोई भेद नहीं होता किन्तु वह विकल्प-शून्य अवस्था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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